" वतन के खातिर चलना "
यूँ दर -दर भटकना,
खाली पैर वतन के खातिर चलना |
कितना कठिन लगने लगा ,
पैरों में छाले पड़ने लगे हैं |
भूख से पेट कटने लगा,
इन कड़ी धूप से दिमाग फटने लगा |
आँसुओं की धाराएँ बहने लगी है,
जिंदगी भी हमसे कुछ कहने लगी है |
सुबह से शाम तक दर -दर भटकना,
वतन के खातिर यूँ चलना |
शायद उस मंजिल तक पहुँच जाएगें,
फिर अपने को देश के नौजवान कह पाएंगें |
कवि : सार्थक कुमार ,कक्षा : 10th , अपना घर
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