बुधवार, 21 अप्रैल 2010

कविता; मूर्ख दिवस

मूर्ख दिवस हम सब मनाते...

मूर्ख दिवस हम
सब मनाते,
एक अप्रैल को अपनी मूर्खता दिखाते
पढ़ाई में अपना मन नहीं लगाते,
इसलिए कुछ बन नहीं पाते
माता पिता को दुःख देते,
वो बेचारे चुपचाप सहते
बच्चे कहते इसमें दोष नहीं हमारा,
ये तो वक्त है जिसके पीछे है जमाना
जमाना तो कभी कुछ नहीं कहता,
पैसो के खातिर इंसान आपस में लड़ता
फूलों के ऊपर तितली, भंवरे रहते,
हम किसी के आगे झुकते
मूर्ख दिवस हम सब मनाते,
अपनी मूर्खता का परिचय दिलाते

लेखक: आशीष कुमार, कक्षा ७, अपना घर

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

कविता: सरकार बनाम सामाजिक कार्यकर्ता

सामाजिक कार्यकर्ताओ का हाल...

समझ में आए,
इस देश की नीति।
जो दिलाये गरीब को इंसाफ,
उसकी बंद कर दी गई जुबान
करे जब वह कोई ऐसा काम,
जिससे लोगो को हो लाभ
सरकार गुस्साए कर दे भन्डा,
पुलिस आये जोर से मारे डंडा।
ले जाये पकड़ के अपने साथ,
फिर कर दे जेल के अन्दर।
जब जेल से छूटे वह बन्दा,
करे धरना और भूख हड़ताल
सरकार और अफसर हो गए लाल,
करने लगे जनता पर खूब अत्याचार।
जब भी जनता अन्याय पे आवाज उठाती,
पुलिस मारके डंडे ले जाये अपने साथ।
इतने से भी सरकार माने,
उसके ऊपर बंदूक है ताने।
झट उसको देशद्रोही बना दे,
कितने सारे मुकदमे करवा दे।
समझ में आये,
इस देश की नीति
जो दिलाये गरीब को इंसाफ ,
उसकी बंद कर दी गई जुबान

लेखक: अशोक कुमार, कक्षा , अपना घर

सम्पादकीय : "दुश्मन बनी सरकार भगवान बने डकैत"

प्यारे दोस्तों,
वर्त्तमान समय में अपने देश की जो स्थिति है उसके एक हिस्सा बुंदेलखंड की कहानी मै आपको सुनाने जा रहा हूँ जिस तरह से मैंने देखा और समझा हैचुकी मै भी बुंदेलखंड से जुड़ा हुआ हूँ और वहां की पीड़ा को महसूस करताहूँ

" सरकार दुश्मन, भगवान डकैत"

भारत का नाम दुनिया के हर कोने पर लिया जाता है, कि भारत एक शांतिप्रिय, लोकतान्त्रिक और मानवता का पक्षधर देश हैऐसा माना जाता है कि यहाँ कि सरकार लोगो कि आम सहमती से बनती है और इस देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार हैइस देश का हर नागरिक अपने को सरकारी कर्मचारियों के समक्ष सुरक्षित और निर्भय महसूस करे ऐसा वातावरण बनाने का काम भी इस देश कि सरकार का हैमगर दुर्भाग्यवश ऐसा माहौल अपने देश और प्रदेश कि सरकारे नहीं बना पाई हैवर्तमान समय में तो बुंदेलखंड कि गरीब जनता चम्बल के डकैतों के सामने अपने आप को ज्यादा निर्भय और सुरक्षित महसूस करती है, बजाय वहां के पुलिस और अन्य सरकारी कर्मचारियों केबुंदेलखंड कि गरीब जनता सरकारी दफ्तरों के बजाय अपने मामले और समस्याओं को सुलझाने के लिए डकैत के पास जाते है, और उन्ही को अपना भगवान या मददगार मानते हैइस देश में प्रतिदिन भ्रष्टाचार, अत्याचार, लूटपाट और बेतहासा बढती हुई महगाई से इस देश कि आम जनता परेशान हो गई हैसरकार और सरकारी कर्मचारी मासूम, बिना दोषी आम आदमी का उनका घर उजाड़ कर, जमीन छीनकर, कभी जेल में, कभी थाने में, तो कभी डकैत, माओवादी कहकर उन पर अत्याचार करती है और अपनी तोंद भरती रहतीहैथाने में रोज किसी बेगुनाह को पकड कर ले आते है और उनसे पैसे वसूल कर चाय, कोका कोला पीने के साथ साथ अपने घर में पैसा जमा करते हैइस देश के जनता के तथाकथित सेवक नेता और अफसर सी में बैठतेहै विस्लरी का बोतल बंद पानी पीते है, और इस देश का आम जनता जो इस देश का असली मालिक है, वो बिनाबिजली के अन्धेरें में दिया जलाकर और साफ पानी की जगह नाली तथा नहर का गन्दा पानी पीकर अपना गुजरबसर कर रही हैक्या इसी को लोकतान्त्रिक देश कहते है, मुझे तो लगता है की ये अत्याचार और भ्रष्टाचार का देशहै जंहा आम आदमी परेशान होकर डकैत या माओवादी के शरण में जाते हैरोज़ अख़बार देखता हूँ आज कुछ अच्छी खबर मिल जाये पढ़नें को मगर नहीं वही रोज हत्या, लूट, दहेज़, बलात्कार, घूस, चोरी, अपरहण, छेड़खानी, गुंडागर्दी की बुरी खबरे पढ़ने को मिलती हैकब हमारा देश सच में लोकतान्त्रिक होगा और अपने देश का आमआदमी सुखी, समृद्ध और निडर महसूस करेगा
लेखक: अशोक कुमार, कक्षा ७, अपना घर
"संपादक "
बाल सजग पत्रिका




कविता: इस बार ऐसा तापमान बढ़ा है,

तापमान बढ़ा है....

मौसम यह कैसा अदभुत है,
जाने कैसी सबकी सेहत है
इस बार ऐसा तापमान बढ़ा है,
सूरज धूप लेकर सिर पर खड़ा है
ऐसी गर्मी मई जून माह में होती,
गर्म हवायें उसके साथ में बहती
इस बार है देखो कैसा ये मौसम,
इस गर्मी में कौन उठाये धूप का जोखम
जाने क्यों ऐसी गर्मी इस बार बढ़ी है,
ऐसा लगता मौत सबके सिर पर खड़ी है


लेखक:आशीष कुमार, कक्षा ७, अपना घर

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

कविता: क्यों कर रहे हो जिंदगी तबाह

इसके बारे में तुम्हे पता है क्या

बना बना कर तमाम फैक्टरिया,
क्यों कर रहे हो जिंदगी तबाह
इस धरती को कर रहे हो ख़राब,
इसके बारे में तुम्हे पता है क्या ?
इन फैक्टरियों से निकलता धुआं,
पर्यावरण को असंतुलित बना रहा
जल जमीन वायु प्रदूषित हो रहा,
इसके बारे में तुम्हे पता है क्या ?
साँस लेने में हो रही है घुटन सी,
मन बेचैन और आँख में जलन सी
बड़ी नदिया भी दिख रही नाला सी,
इसके बारे में तुम्हे पता है क्या ?
इन्सान ने ये कौन सा रोग पाला,
जिन्दगी को मौत के मुहं में डाला
हरे भरे जंगल को बंजर बना डाला,
इसके बारे में तुम्हे पता है क्या?
बना बना कर तमाम फैक्टरिया,
क्यों कर रहे हो जिंदगी तबाह
लेखक: सागर कुमार, कक्षा ६, अपना घर


रविवार, 18 अप्रैल 2010

कविता: घड़ी

घड़ी

समय हमें बतलाती है,
नाम घडी कहलाती है
जब घडी गलत हो जाता है,
तब समय गलत हो जाता है
आगे करो या पीछे घड़ी,
असमंजस में पड़ता आदमी
जब भी जल्दी हो देता काम,
ऐसे काम का यही है दाम
समय हमें बतलाती है,
नाम घडी कहलाती है
लेखक: सोनू कुमार, कक्षा ८, अपना घर

कविता: वतन

इस वतन से सबको प्यार है..........

वतन के तुम वतन के,
इस वतन से सबको प्यार है।
हिन्दू लड़ते मुस्लिम लड़ते,
क्यों इनके बीच भेद की दिवार है।
दिवार ये है किसने बनाई,
ये जानना हम सबका अधिकार है।
जो जाने जो समझे,
उसका जीवन बेकार है।
हम जीते है हम मरते है,
नहीं किसी से डरते है।
हम वतन के तुम वतन के,
इस वतन से सबको प्यार है।
जिसको अपने वतन से नहीं है प्यार,
उसका इस धरती पर जीना है बेकार

लेखक: आदित्य कुमार, कक्षा , अपना घर

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

कविता: आदमी कहलाने लायक नहीं हूँ

मै एक आदमी हूँ ......

मै एक आदमी हूँ,
लेकिन आदमी कहलाने लायक नहीं हूँ
मेरे पास दिमाग है,
लेकिन वह बेकार है।
उन्नति तो हमने बहुँत किया,
मगर समाज को कुछ दिया।
इस हरी भरी दुनिया को,
छिन्न - भिन्न कर गया।
एक दिन ऐसा आएगा,
दुनिया खत्म हो जायेगा।
इसका कारण एक है,
किन्तु वह अनेक है।
दो हाथो दो पैरो वाला है,
खोज-बीन करने वाला है।
दुनिया में पता नहीं क्या क्या बनाया,
इस पूरी धरती पर प्रदूषण फैलाया।
जिस मिटटी में हम पैदा हुए,
उसी को हम सब लूट लिए।
इन्सान से अच्छा जानवर है,
प्रकृति के हरदम साथ है।
अच्छा भोजन खाता है,
अपनी बात फरमाता है।
जंगल जमीन में रहता है,
जंगल का साथ निभाता है।
मै एक आदमी हूँ ,
लेकिन अपने आप पर शर्मिंदा हूँ

लेखक: मुकेश कुमार, कक्षा ८, अपना घर




कविता: राजा ने किया रानी से मजाक

राजा ने किया रानी से मजाक

एक
दिन राजा बोले रानी से ,
आलू लाओ जाकर खेतो से
रानी बोली मै नहीं जाउंगी खेतो में,
चाहे मुझको रखो तुम अपने घर में
सुनकर रानी की ऐसी बानी,
राजा पीने लगे जल्दी से पानी
राजा बोले मैंने तो मजाक किया,
तुमने उसको सच मान लिया
तुम तो हो इस घर की रानी,
समझा करो तुम मेरी बानी
रानी बोली ऐसा मजाक मुझसे करना,
चली जाउंगी मायके तब पछताते रहना।
राजा बोले माफ़ करो चुप हो जाओ रानी,
भूख लगी है लाओ जल्दी दे दो खाना पानी
किसकी कविता किसकी कहानी,
राजा रानी की ख़त्म हुई कहानी

लेखक: आशीष कुमार, अपना घर, कक्षा ७

रविवार, 11 अप्रैल 2010

कविता :सुनो पर्यावरण की आवाजें

सुनो पर्यावरण की आवाजें

पर्यावरण और कल कल झरनों की आवाज
महसूस करो दोस्तो गंगा-यमुना की आवाज
एक समय ऐसा भी था
गंगा-यमुना समुन्दर जैसी थी
गंगा-यमुना के पानी से
क्यों कर रहे हैं कोका-कोला तैयार
क्या तुम्हें याद हैं एक बात
पड़ गया था पानी का आकाल
उस समय येसा था
गंगा-यमुना में पानी कम था
गंगा-यमुना को है बचाना
वातावरण को है सुन्दर बनाना


लेखक :सागर कुमार
कक्षा :
अपना घर

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

कविता सारे आम गिरे तोते के शोर से

सारे आम गिरे तोते के शोर से
हरी डाल पर बैठा तोता ,
हमने देखा वह पका आम खता.....
मै नीचे बैठा वह ऊपर बैठा,
उस आम के लिए मै एठा......
मै बैठा सोचू कि यह आम मुझे ही मिले,
इसका रस मेरे पेट में जाकर टहले.....
बार बार तोता मेरी ओर देखता ,
मुझे देखकर ठाँव ठाँव कर गता......
तब तक आम गिरा वह नीचे,
उसे उठाने दौड़ा मैं उसके पीछे......
जैसे ही उसको पाया धुल कर मैं ने खाया ,
उसको खाने में बड़ा मजा आया.....
तब तक तोता रोया इतनी जोर से,
पेड़ के सारे आम गिरे उसके इस शोर से .....
सारे आमो को हमने उठाया,
फिर जाकर घर में सबके साथ में खाया......
लेखक आशीष कुमार कक्षा अपना घर

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

कविता :फाल्गुन का महीना बीता

फाल्गुन का महीना बीता

जब हम जागते सोकर
तब सूरज निकलता धूप लेकर
सूरज अपनी किरणों को ऐसे बिखेरता
जैसे होली में चारो ओर अबीर उड़ता
फाल्गुन का महीना बीता
अगली सुबह चैत्र का महीना सूरज लेकर आता
बैसाख के महीने में स्कूल बंद हो जाते
सब बच्चे गर्मी में मौज-मस्ती करते
शाम को सूरज ढलता
सारी किरणों को अपने संग में ले जाता
अगले दिन सूरज नयी सुबह लेकर आता
सब लोगों के मन की धूप खिलाता

लेखक : आशीष कुमार
कक्षा :
अपना घर

मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

कविता रेल चली

रेल चली
रेल चली रेल चली ,
डग मग डग मग करती रेल चली.....
यहाँ वहा पहुचाती रेल चली,
रेल हमें सीटी बजा कर बुलाती ....
कुछ यात्री चढ़ नहीं पाते,
जो चढ़ नहीं पाते वापस घर लौट आते......
दूसरे दिन रेल को पकड़ पाते,
जहा पहुचना वहा पहुच पाते.....
रेल चली रेल चली,
सीटी दे कर रेल चली......
लेखक चन्दन कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

कविता रेल चली

रविवार, 4 अप्रैल 2010

आम
आम रसीले देखकर ,
आया मुंह में मेरे पानी.....
चढ़ कर पेंड पर ,
मैंने उसको तोडा.....
आम लागे थे चार,
आम मैंने खाया यार.....
आम रसीले खा कर के,
मुझको आई मजा.....
चदा था पेड़ पर मै,
डाल छुली गिरा मै नीचे....
आम खाने की मिली सजा ....
लेखक सोनू कक्षा अपना घर कानपुर

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

कविता :बिल्ली की रानी

बिल्ली की रानी

आती है रात को ।
बिल्ली की रानी ॥
पीती है दूध और पानी ।
चुपके से पी जाती है ॥
आहट सुन कर डर जाती है ।
एक भी नहीं चिल्लाती है ॥
खिड़की से निकल जाती है ।
अपनी आदत भूल जाती है ॥
आती है रात को ।
बिल्ली की रानी ॥

लेखक :ज्ञान कुमार
कक्षा :६
अपना घर

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2010

कविता करो वन तैयार

करो वन तैयार
लगा लगा के व्रक्षों को ,
फिर से कर दो वन तैयार....
जिससे वह समय याद,
जिसमे होते गिद्द हजार.....
होता प्रथ्वी को नुकशान,
लगा लगा के व्रक्षों को,
फिर दो वन तैयार......
जिसमे प्रथ्वी जाय वातानुकूल,
फिर से हो जाय वह हरियाली......
जिसे देख हवा चले सुहानी,
वह प्रथ्वी की पपड़ी......
फिर से हो जाय तैयार,
जिससे हो रही हैं गर्मी इतनी......
जिससे हयरान हैं मुल्क की आबादी,
लगा लगा के व्रक्षों को.....
फिर से कर दो वन तैयार,
लेखक अशोक कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

कविता :काली रात

काली रात

अधेंरी काली रात थी
चूहों की बारात थी
बारात में चोर आये थे
चूहों को मार भगाए थे
जब चूहे वापस आये थे
साथ में अपनी फौज लाये थे
सब चोरों को मार भगाए थे
हलुआ पूड़ी खूब खाए थे ॥
अंधेरी काली रात थी
चूहों की बरात थी

लेखक :सागर कुमार
कक्षा :
अपना घर