रविवार, 30 जनवरी 2011

कविता: हम बच्चे हैं..............

 हम बच्चे हैं......

बच्चे हैं, हम बच्चे हैं ,  हम बच्चे हैं हम ....
हम अच्छे हैं, हम सच्चे हैं,
हैं थोड़ा कच्चे हम .
हम करते हैं शैतानी, थोड़ा हैं नटखट,
धमा चौकड़ी खूब मचाते, करते उठा पटक.
हम बच्चे हैं, हम बच्चे ....
सपने हमको खूब हैं आते,
परियों के हम देश में जाते.
चाट और टाफी हमको भाते ,
पंख लगा कर हम उड़ जाते .
हम बच्चे हैं, हम बच्चे हैं .....
करते हैं नादानी  हम, पीते खूब हैं पानी हम, 
नानी के घर जाते हम, मिलकर मजे उड़ाते हम. 
हम बच्चे हैं, हम बच्चे हैं ......
आओं तुम भी मिल जाओ ,
हम संग बच्चे बन जाओ .
छुक -छुक कर के रेल चले जब,
तुम भी डब्बे बन जाओ .
हम बच्चे हैं, हम बच्चे हैं ,
हम बच्चे हैं हम ......

हम अच्छे हैं, हम सच्चे हैं,
है  थोड़ा  कच्चे हम.... 


लेख़क: महेश, अपना घर 

शुक्रवार, 28 जनवरी 2011

kavitaa :paanee

पानी
पानी की है प्यासी मामी ,
रोज हमसे मंगाती है पानी ...
पूरे विश्व की है यह कहानी,
पूरी दुनियाँ मांगें पानी....
सारे लोग पीते हैं पानी,
जीवन है पानी ही पानी.....
प्रथ्वी की है पुरानी यह कहानी,
जीते हैं लोग पीते हैं पानी ....
नानी कहती है रोज यही कहानी  ,
पानी की है यह बात पुरानी .....
पानी की है प्यासी मामी ,
लेख़क :अशोक कुमार 
कक्षा :८
अपना घर


kavita: अब न गुस्सा करूँगा भाई.....

अब न गुस्सा करूँगा भाई.....

ऐसी खवाई जिसने की रोटी खाई.
उसकी खवाई मेरी समझ में नहीं आई.. 
रोटी खाकर उसने ली जब अंगडाई. 
उसकी खटिया बड़ी जोर से चरमराई.. 
जब देखा उसने खटिया से उठकर. 
चारो पाये अलग गिरे टूटकर ..
खटिया में लगी थी नकली लकड़ी.
गुस्से में उसने बीबी की चोटी पकड़ी..
पत्नी रोई, चिल्लाई खूब शोर मचाई.
इस झगड़े में बीबी को खो गई बाली..
बीबी बोली ढूंढ़कर दो मेरी बाली.
नहीं तो यह घर हो जायेगा खाली..
उसने बीबी को किसी तरह मनाया .
सोनार से सोने की बाली बनवाया ..
कान पकड़ कर उसने कसम खाई.
अब किसी से गुस्सा नहीं करूँगा भाई..


लेख़क: आशीष कुमार, कक्षा 8, अपना घर

गुरुवार, 27 जनवरी 2011

कविता : शाबाशी दी मास्टर साहब ने

शाबाशी दी मास्टर साहब ने

मास्टर साहब आये पूछा कहाँ गए थे ?
मैने कहा जाने कब से यहीं पर बैठे थे ।
न जाने आप का कोई पता नहीं ,
डर के मारे आपका काम किये बगैर मैं सोया नहीं ....
काम हुआ जैसे ही पूरा ,
खाया मैनें चार- पांच खीरा ....
खीरा था या उसमें थे कंकड़ ,
आगें वाले मेरे दांत टूटे धड़-धड ....
सोया नहीं मैं रात भर ,
क्योंकि दांत दर्द हो रहे थे बड़ी जोर ....
मास्टर साहब बोले इसमें मेरा क्या कसूर ,
काम किया तुमने पूरा इसलिए तुम हो बेकसूर ....
काम किया जब पूरा हमने ,
तब शाबाशी दी मास्टर शाहब ने .....

लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :
अपना घर

रविवार, 23 जनवरी 2011

कविता : साइकिल

साइकिल

हमारी साइकिल है कितनी अच्छी ।
दूर-दूर तक पहुँचाती है ॥
मेड़ों में चढ़ जाती है ।
गाँव-गाँव पहुँचाती है ॥
इसके ऊपर रखकर सामन ।
चलती जाती है आसान ॥
हमारी साइकिल है कितनी अच्छी ।
दूर-दूर तक पहुँचाती है ॥

लेख़क :जमुना कुमार
कक्षा :5
अपना घर

गुरुवार, 20 जनवरी 2011

कविता : डॉक्टर

डॉक्टर

डॉक्टर आए डॉक्टर आए ।
साथ में अपने आला लाये ॥
ह्रदय के तरफ है आला लगाता ।
तब दर्द और बुखार का पता लगाता ॥
अगर कोई बीमारी हो जाती है ।
डॉक्टर आकर सुई लगा जाता है ॥
डॉक्टर आए डॉक्टर आए ।
साथ में अपने आला लाए ॥

लेख़क: जमुना कुमार
कक्षा :5
अपना घर

बुधवार, 19 जनवरी 2011

कविता :नेता

नेता

आज के नेता बड़े बेईमान ।
भरते झोली चलते सीना तान ॥
करते रहते हैं लाखों का घोटाला ।
नहीं है कोई इनको पकड़ने वाला ॥
नेता जी के घर में चोरों का एक बार पड़ा पाला ।
रुपये जेवरात नेताजी के घर से निकाला ॥
आज के नेता बड़े बेईमान ।
भरते झोली चलते सीना तान ॥

लेख़क :सागर कुमार
कक्षा :7
अपना घर

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

कविता : खेल

खेल

खेल हम तो खेलते हैं ।
संसार मैं आगें बढ़ते हैं ॥
दुनियाँ भर में हम खेलते हैं।
कोई जीतता है कोई हारता है ॥
खेल संसार में होता है ।
फिर जीवन आगें बढ़ता है ॥

लेख़क :चन्दन कुमार
कक्षा :5
अपना घर

सोमवार, 17 जनवरी 2011

कविता : बसंत ऋतु

बसंत ऋतु

देखो बसंत ऋतु है आयी ।
अपने साथ खेतों में हरियाली लायी ॥
किसानों के मन में हैं खुशियाँ छाई ।
घर-घर में हैं हरियाली छाई ॥
हरियाली बसंत ऋतु में आती है ।
गर्मी में हरियाली चली जाती है ॥
हरे रंग का उजाला हमें दे जाती है ।
यही चक्र चलता रहता है ॥
नहीं किसी को नुकसान होता है ।
देखो बसंत ऋतु है आयी ॥

लेख़क :चन्दन कुमार
कक्षा :5
अपना घर

रविवार, 16 जनवरी 2011

कविता :धोबी की कमाई गधे ने जान गवाई


धोबी की कमाई गधे ने जान गवाई


एक गधे की सुनो कहानी ।
सुनते ही होगी सबको हैरानी ॥
एक बार था जब गधा बीमार ।
फिर भी धोबी ने लादे कपड़े पूरे हजार ॥
हिलता-डुलता गधा बेचारा ।
धोबी ने न दिया उसको उस दिन चारा ॥
क्योंकि गधा था उस दिन बीमार ।
उसने न ढोये थे धोबी के कपड़े दस हजार ॥
इस पर धोबी ने गधे पर बेरहमी ढाई ।
धोबी के कार्यों में गधे ने अपनी जान गंवाई ॥
धोबी की तो हो गई खूब कमाई ।
लेकिन गधे की जान यमराज ले गए भाई ॥

लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :8
अपना घर

कविता: कड़ाके की है सर्दी आई.....

कड़ाके की है सर्दी आई.....

ये कड़ाके की है सर्दी आई।
सबको है अब धूप सुहाई॥
रजाई ओढ़ कर बैठे अब हम।
स्कूल जाने का कोई गम॥
सर्दी में सबको ये धूप सुहाती।
बर्फीली हवाएं रोयें खड़ी कर देती
ठंढे पानी से अब लगता है डर।
फिर भी नहाना पड़ता है मगर॥
तापमान तो है घटता ही जाता।
सुबह को कोहरा छाता ही जाता॥
घने कोहरे में हमको कुछ नहीं दिखता
घने कोहरे से हम सबका जी घबराता

लेख़क: धर्मेन्द्र कुमार, कक्षा , अपना घर

शनिवार, 15 जनवरी 2011

कविता : न सुनने को मिलते किस्से-गाने

न सुनने को मिलते किस्से-गाने

जब भी देखे बचपन के सपने ,
दादा के किस्से नानी के गाने .....
सुनने को करता मेरा मन ,
न होते सपने ये पूरे .....
क्योंकि हम न रहते उनके संग ,
न ही हमें सुनने को मिलते .....
दादा-दादी के किस्से-गाने ,
सबसे मुश्किल तो यह है .....
कि वह तो हैं अपने घर द्वार पर ,
हम भी किसी दूसरे के साथ हैं .....
एक छोटे से शिक्षा के केंद्र पर ,

लेख़क :अशोक कुमार
कक्षा :8
अपना घर

बुधवार, 12 जनवरी 2011

कविता: जब भी देखू आकाश को............

जब भी देखू आकाश को ......

इस भूमि के हर किनारे से
देखों इस आकाश को॥
कंही काला कंही सफ़ेद।
क्यों है इसका ऐसा रंग॥
क्या किसी ने सोचा है।
उसको पास से देखा है॥
क्या किसी ने उसको समझा
पत्थर है या भाप का गोला
काश की
मै भी नभ उड़ जाता
आकाश को पूरा देख के आता
मेरी समझ में जाता आकाश।
जिससे मेरा भ्रम हो जाता साफ॥
जब भी देखू आकाश को
मन मचले उड़ जाने को

लेख़क: अशोक कुमार, कक्षा , अपना घर

शनिवार, 8 जनवरी 2011

कविता :खाऊँगा दही बड़ा


खाऊँगा दही बड़ा


मैं खाऊँगा दही बड़ा ,
खट्टा- मीठा दही बड़ा ....
खाने के लिए मैं रसोई में खड़ा ,
कब बनेगा दही बड़ा ....
तभी मेरे पीछे एक डंडा पड़ा ,
मैं खाऊँगा दही बड़ा .....

लेख़क :चन्दन कुमार
कक्षा :5
अपना घर

बुधवार, 5 जनवरी 2011

कविता :तबला समझ खूब बजाया

तबला समझ खूब बजाया

एक घर की सुनो कहानी ,
जासूसी करती थी उन सब की नानी .....
नानी थी तो बिल्कुल पतली-दुबली ,
जैसे तलवार की धार हो नोकी पैनी वाली .....
वह जिसके पास है जाती ,
उसके पैरों तले जमीन खिसकती .....
एक दिन नाना जी को गुस्सा आया ,
नानी की खोपड़ी को तबला समझ खूब बजाया .....

लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :8
अपना घर

कविता :क्यों काले सफेद दाग

क्यों काले सफेद दाग

इस भूमि के हर किनारे से ,
देखो इस आकाश को ....
कहीं काला कहीं सफेद ,
क्यों है इसका येसा रंग ....
क्या किसी ने सोचा है ,
उसको पास से देखा है ....
नहीं किसी ने उसको समझा ,
पत्थर है या भांग का गोला ....
पता नहीं कब हो जाए ओ साफ ,
जिससे मानव का हो जाए भ्रम खत्म ....
फिर वह न देखे आकाश में ,
काले-सफेद जैसे दाग ....

लेख़क :अशोक कुमार
कक्षा :8
अपना घर

रविवार, 2 जनवरी 2011

कविता : सबका है सबसे मतलब

सबका है सबसे मतलब

फूल हैं हम क्या फूल है हम ।
खुशबू देते सबको हम ॥
सभी घरों की सजावट हमीं से होती ।
फूलों की माला हमसे ही बनती ॥
जिस तरह से आसमान में तारे दिखते ।
दिन में सूर्य की रोशनी से छिप जाते ॥
सूर्य भी तो है एक तारा ।
चंदा आसमान में रात को लगता प्यारा ॥
चंदा की तो बात निराली ।
चंदा न हो तो आसमान लगता खाली-खाली ॥
सबका है सबसे मतलब ।
जैसे की मछली को है पानी से मतलब ॥


लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :8
अपना घर