" ये मंजिल क्यों , क्यों है ये राह "
तेरी मैं तलाश में
मन - मन भटकता हूँ ,
हुआ नहीं कभी भेट ये मंजिल से ,
एक बैठा जा किस वन - बाग में ,
दिखता नहीं तू कैसा है रे ,
धुँधला - धुँधला क्यों राह में ?
उम्मीदे झलख रही है ,
मन यूँ ही निराश है ,
चार कदम चले बिना है।
चरण छितराए विराम करुँ,
पड़ा हु आधी राह में।
पूछ रहा हूँ तुझसे ये मंजिल ,
गुमसुम , क्यों है ये राह में ?
माँ - बहन के हाथों खाए ,
हो रहे हैं लम्बे वक्त।
ठेंस - ठेंस है यहाँ पे इतना ,
की भर आए मेरे आँख ये मंजिल।
इस जख्म को करे कौन मरहम - पट्टी ,
मैं अकेला ही इस एकांत में।
कहाँ मिलेगी सतरंग ये मंजिल ,
गरीबी क्यों है ये राह में।
कवि : पिंटू कुमार ,कक्षा : 10th,
अपना घर।