" इंसान जब थोड़ा बड़ा होता है "
न मिल पाए आराम करता है सिर्फ काम,
बचपन के खेल खिलौने को देता है आराम |
जिसकी जिंदगी गुजर जाती है सिर्फ काम से,
वो दिन रात लगा रहता है बिन आराम के |
जिस खिलौने से खूब प्यार से खेलता था,
उन्हीं खिलौने में दिनभर खोया रहता था |
आज उन्हीं को पड़ रहा है बेचना,
उसका तो बस काम परिवार को चलाना है |
इंसान जब थोड़ा बड़ा हो जाता है | |
जिम्मेदारियों से घिर जाना उनको पूरा करना,
अपना कर्तव्य सिर्फ जिम्मेदारियों को पूरा करना समझना |
डीजे बजते हुए भी न नाचना,
नाचने को लेकर मन में आशंका होना |
अपने उस बचपन को खोता है,
इंसान जब थोड़ा सा बड़ा होता है |
सुबह घर से निकलना शाम को घर आना,
अपने अंदर के उदासी को भूलकर खुश रहना |
नरक जिंदगी में भी डटे रहना,
बिना संकोच में लगा रहता है इंसान जब थोड़ा बड़ा होता है | |
कवि : समीर कुमार , कक्षा : 10th , अपना घर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें