" रूठ गई वह डाली "
रूठ गई वह डाली |
जिसपर फूल खिले थे वह निराली,
सुबह की वह किरण जो कर देती मन को हरियाली|
वह आज दिख नहीं रही है ,
कौन सी मौसम बन गई उसके लिए पराई|
पूछ रही है वह सब से क्या हमने कुछ गड़बड़ दी भाई,
जिंदगी हो गई मौत |
पलंग बनकर निभाता है,
जिंदगी में आखिरी समय पर भी|
तुम्हारे शरीर को पावन कर आता हूँ,
फिर भी मेरी जिंदगी की ऐसी मजाल|
उखाड़ने के लिए है बेक़रार ,
कब पहुंचेगी मेरी लफ्जों को गहर|
तुम्हारे हर एक सांसो में है मेरे जीवन का संसार,
फिर क्यों रूठ गई वह डाली |
जिस पर फूल खिले थे ,वह निराली|
कवि :विक्रम कुमार ,कक्षा :12th
अपना घर
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