रविवार, 12 मई 2024

कविता :"वक्त का जख्म "

 "वक्त का जख्म "
कर देते है बर्बाद अपने वक्त को जब हम ,
चाहकर भी वो वक्त कुछ नहीं कह पाता है  | 
जब रुलाकर दे जाते जख्म उसे हम ,
चुपचाप वक्त उसे सह जाता है | 
हर मुश्किलों को झेलकर ,
अपने आप को समझाता है | 
होते देख बर्बाद खुद को ,
रोते हुए भी नहीं रो पता है | 
जो जख्म देते है वक्त को हम,
चुपचाप उसे वह सह जाता है | 
लेकिन मै वक्त हूँ जो अपना सही समय तरसता हूँ ,
अपने को बर्बाद होते देख खुद को समझाता हूँ | 
वक्त को फिजूल जया करने वालों को ,
जब वक्त का जख्म लगता है | 
वो इंसान चाहकर भी जिंदगी में ,
कुछ कर नहीं पाता है | 
कवि :साहिल कुमार ,कक्षा :8th 
अपना घर 

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