"मिट्टी के खिलौने"
बचपन में सजाए थे जो सपने।
आज भी याद आते है मिट्टी के खिलौने।।
धरती को भेदकर जिस तरह मैंने बनाया।
अपने छोटे हाथों से इसे सजाया।।
बचपन में आए जो विचार।
उन्ही के अनुरूप दिया मैंने आकार।।
क्यों एक हाथ एक पैर बन जाते थे छोटे।
क्यों वो छोटी आँखे बन जाते थे मोटे।।
बिना पकाए युही धूप दिखया।
इन्ही खिलौने से बचपन बिताया ।।
मिट्टी खिलौने अब छूटने लगे है।
सजाये हुए सपने अब टूटने लगे है।।
कितने अच्छे दिन थे वो अपने।
जब मै बनता था मिट्टी के खिलौने।।
कविः -प्रांजुल कुमार ,कक्षा -11th ,अपना घर ,कानपुर ,
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