"पवन"
लहर-लहर हर दोपहर।
चलती हैं तू कुछ ऐसे।।
जंगल में मृग मोहिनी।
चलती हो जैसे।।
कभी पसर-पसर कर।
तो कभी पतली डगर पर।।
चलती हो मटक-मटक कर।
झीलों में लहर उठती हो जैसे।।
कभी मंध-मंध।
तो कभी मन मोहकर चलती है।।
तो कभी फल पत्तियों को।
झकझोर कर चलती है।।
चलने की आवाज आती है सर-सर।
ठंडक पहुँचाती है सभी को हर पल।।
कभी धीरे और आराम से चलती है।
कभी हमरे बालों को सहलाकर चलती है।।
पर चलती है ऐसे एक मुसाफिर हो जैसे।
कविः -देवराज कुमार, कक्षा -10th , अपना घर , कानपुर ,
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