" नसीब भी क्या खेल खलती है "
नसीब भी क्या खेल खलती है ,
कही किसी चीज की जरूरत और दूसरी तरफ |
सारे रस्ते बंद कर देती है ,
पता नहीं चलता की |
हमे चलना किस तरफ है ,
क्योकि किस्मत की |
दरवाजे बंद हर तरफ है ,
लेकिन हर एक दरवाजो पर |
दस्तक देना जरूर है ,
क्योकि हम तो मजबूर है |
पर इस अंधेरे भी रोशनी ढलती है ,
नसीब भी क्या खेल खेलती है |
कवि : देवराज कुअंर , कक्षा 10th , अपना घर
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