"किस्मत "
किस्मत से है हारे ये |
पर सपने है सवारे ये ,
दूर -दूर पैदल चलकर |
आँखों में उम्मीद को लेकर ,
बढ़ रहे है मंजिल की ओर |
दिन में पापा की सिर्फ एक रोजी ,
जो लाता घर शाम की रोटी |
पर न है हारे ये ,
पर सपनो को सवारे ये |
समाज से आगे चलकर ,
घर वाले से लड़कर |
जाना चाहते है उस छोर ,
दिल में आशा लेकर |
बढ़ रहे है मंजिल के ओर ,
कवि : देवराज कुमार
अपना घर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें