बुधवार, 7 मई 2025

कविता :" अनजान हो रही गलियां "

" अनजान हो रही गलियां "
अब गुमसुम हो रही अनजान गलियां ,
अब पराए हो रहे अपने लोग। 
अब कठिनाई की मेधा चली आई मंडाते हुआ। 
अंधेरी रातो की चंदिनि भी छीन ली गए। 
अब बस  उम्मीद की दीपक जल रहा मुझमे।।
सोचकर भी नहीं मिल सकता वह पल , 
जो कभी सबसे कीमती हुआ करती थी। 
यह जमी भी मुझसे रूठ  चूकी है। 
यह मुस्कान भी मुझसे छीन चूकी है। 
यह लोग क्या समझते , सब वक्त इंतजार करते है।  
मुश्किल घड़ी में अपने भी पराए बन जाते है। 
वही सच्चा मित्र भी मुँह मोड़ लीता है। 
अब गुमसुम हो रही अनजान गलियां ,
अब पराए हो रहे अपने लोग। 
कवि : अमित कुमार, कक्षा : 11th,
अपना घर। 

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