"रोशनी"
इस रोशनी में भी मुझे ,
अँधेरा सा लगने लगा है।
ये ढालता सूरज भी मुझे अब ,
साथ देने लगा है।
कम्बख्त भी मेरे साथ,
क्या खेल खेला है।
जहाँ मुझे खड़ा होना था,
वहां मुझे गिरा दिया है ।
जिस तरह सूरज शाम को,
ढल जाने का इन्तजार करता है।
उसी तरह ढल जाने की राह में हूँ ।
कवी: सनी कुमार , कक्षा : 11वीं
अपना घर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें