रविवार, 31 अक्टूबर 2010

कहानी :छोटे भाई का कमाल

छोटे भाई का कमाल

एक गाँव में रामू और प्रकाश नाम के भाई रहते थेइन दोनों भाइयों में प्रकाश बड़ा भाई और रामू छोटा भाई थाएक दिन दोनों भाई गधा चराने के लिए जाते हैंचलते-चलते वे दोनों भाई घने जंगल में पहुँच जाते हैंउसी घने जंगल में एक बड़ा शेर रहता थारास्ते में दोनों को वही शेर मिल गयाउन दोनों भाइयों में बड़ा भाई डरने लगा, तो छोटे भाई ने कहा भैया डरो मत हम दोनों शेर से लड़ाई करते हैंजब शेर उन दोनों भाइयों पर लपका तो, भाई लड़ने लगे अंत में छोटे भाई ने छुरा निकाला और शेर को मार डालाऔर दोनों भाई गघे को लेकर घर वापस गये

लेख़क :चन्दन कुमार
कक्षा :5
अपना घर

शनिवार, 30 अक्टूबर 2010

कविता :बन्दर दांत दिखावे

बन्दर दांत दिखावे

एक बन्दरिया नाच दिखती ,
बन्दर खड़े - खड़े दांत दिखाता....
मदारी रोज पैसा कमाता,
बन्दरिया बन्दर को रोज चिढ़ाती.....
एक दिन बन्दर बैठा था एठा,
बन्दरिया बोली ले खाले भांटा....
बन्दर चिढ़कर गुस्से में बोला,
चुप हो जा वरना जाग जायेगा मेरे अन्दर का शोला....
फिर भागेगी बरत के पास,
जहा पे खायेगी तू छोला.....
छोला के संग होगा पुलाव का चलाव,
तू खायेगी तो हो जायेगा बवाल....
मैं कर दुगा दिखाए बरत में धमाल,
लोग कहेगे क्या हैं इसका कमाल.....
एक बन्दरिया क्या नाच दिखावे,
बन्दर खड़े -खड़े दांत दिखावे.....
लेखक :मुकेश कुमार
कक्षा :९
अपना घर, कानपुर

गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

कविता : ईमान

ईमान

सारे शहर में मचा हैं शोर ,
चारो ओर छायी संकट की घटा घन घोर.....
कौन हैं ईमानदार कौन हैं बेईमान,
इसका पता लागाए कौन.....
मुझको तो सभी हैं दिखते इंसान ,
नहीं बना किसी के माथे पर कोई निशान.....
कि यह हैं ईमानदार या बेईमान,
न ही उसकी कोई और पहचान.....
यह जीवन जीना हैं बड़ा मुश्किल,
इसको जीने के लिए सुख दुख करना होगा तुम को शामिल....
नहीं किसी का जुल्म चलेगा और न ठेकेदारी,
चाहे जितना कठिन हो काम करेगे भारी से भारी....
इस जंग में रहने वाले सभी हैं इंसान,
नहीं किसी के आगे झुकना मन में यह लो ठान .....
न बनी हैं आन बनी हैं सबका ईमान,
ऐसा na करना काम जिससे हो सभी इंसान बेईमान .....
लेख़क : आशीष कुमार
कक्षा : ८
अपना घर , कानपुर

कविता : मैंने देखा घोंघा

मैंने देखा घोंघा


मैंने देखा घोंघा ,
नाम था नकली लॉग....
पानी में वह रहता था,
नहीं किसी से डरता था.....
तभी वहां आया एनाकोंडा,
तुरन्त निकला फोड के अण्डा....
अगर निगल जाता उसको,
उसका असली नाम था डिस्को...
घोघा बड़ा हुआ था जब,
अच्छे - अच्छे जानवर डरते थे सब.....
लेख़क : सोनू कुमार
कक्षा :
अपना घर ,कानपुर

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

कविता :सूरज मामा चन्दा मामा

सूरज मामा चन्दा मामा

कलम और कॉपी लेकर ।
बैठे जब हम टेबल पर ॥
आसमान की ओर देखा जब ।
कितने तारे चमक रहे थे तब ॥
चन्दा मामा घूम रहे थे ।
अर्धवृत्त आकृति लिए हुये थे ॥
चल रहे थे अपने पथ में ।
मगन हुए थे अपनी धुन में ॥
गयी रात जब हुआ सबेरा ।
पंछी गाया तब मुर्गा बोला ॥
सूरज मामा लेकर आये ।
साथ में अपने लाल घटाए ॥
गुम हो गए चन्दा मामा ।
लाल हो गये सूरज मामा ॥
चन्दा मामा कहीं सो गये ।
शायद सपनों में खो गए ॥
चन्दा मामा सूरज मामा ।
दुनियाँ घूमें आधा-आधा ॥
सूरज मामा जब-जब जागे ।
सारी दुनियाँ तब-तब भागे ॥

लेख़क :अशोक कुमार ,कक्षा :
अपना घर

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

कविता : काले -काले बादल छाये

काले- काले बादल छाये

काले- काले बादल छाये,
बरसात का मौसम लाये....
रिमझिम- रिमझिम पानी बरसा,
छायी हैं खेतों में हरियाली....
बरसात की हर बूंदों में,
छिपा हैं शरबत का मीठा पानी.....
किसान भाई इसका करते खूब उपयोग,
लगाया करते इस मौसम में धान खूब.....
बरसात की हर बूंदों में,
छिपा हैं शरबत का मीठा पानी ....
काले- काले बादल छाये,
बरसात का मौसम लाये...
लेख़क : सागर कुमार
कक्षा :
अपना घर , कानपुर

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

कविता :बन्दर बड़े जोर से बमका

बन्दर बड़े जोर से बमका

एक मदारी खेल दिखाता ,
बन्दर और बंदरिया को नचाता ....
बंदरिया लगाती ठुमके जितने ,
मदारी को मिलते पैसे उतने ....
बंदरिया ने लगाया जब ठुमका ,
तब बन्दर बड़े जोर से बमका ....
कभी लेटकर नाचे तो कभी उठकर ,
गुस्सा बैठा था उसकी नाक पर ....
बन्दर येसा नाच दिखाया ,
की लोगों ने पैसों का ढेर लगाया ....
मदारी के गालों में दो-चार थप्पड़ मार ,
बन्दर और बंदरिया दोनों हो गये फरार ....

लेख़क :आशीष कुमार ,कक्षा :
अपना घर

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

कहानी :देवता प्रकट हुये

देवता प्रकट हुये

एक बार की बात हैएक गाँव में बहुत से आदिवासी रहते थेउसी गाँव के पास ही एक घना जंगल पड़ता थाउसी जंगल में एक लड़की जंगल काटने जाया करती थीएक दिन जंगल काटते-काटते वह बहुत आंगे निकाल गयीजब उसको प्यास लगी तो वह पानी की खोज में इधर-उधर भटकने लगीतभी उसे अचानक तालाब दिखाई पड़ाउस तालाब में सुंदर-सुंदर मछलियाँ थीउस लड़की ने मछलियों को देखा और पानी पीकर अपनी प्यास बुझाईपानी,पीने के बाद वह मन में सोचने लगी,कि मछलियों को पकड़ कर अपने घर ले जाऊं तो कितना अच्छा होगावह लड़की अपने घर चली आयी। फिर मछलियाँ अपने मन में सोचने लगती हैं,कि उस लड़की ने हम सभी लोगों को देख लिया है,वह हम सभी मछलियों को पकड़ ले जायेगीतभी एक देवता प्रकट हुयेऔर बोले कि जो भी बात है, वह कल सुबह ठीक हो जायेगीइतनी बात कहकर देवता गायब हो जाते हैंकल ठीक सुबह मछुआरा मछलियों को पकड़ने आता है,तभी रास्ते में उसे एक भयानक राक्षस मिलता हैऔर उस मछुआरे को मार डालता हैतभी से उस तालाब में कोई नहीं आता थाऔर मछलियाँ आराम से रहने लगीं

लेख़क :लवकुश कुमार
कक्षा :
अपना घर


शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010

कविता :काले-काले बादल छाए

काले-काले बादल छाए

काले-काले बादल छाए ,
बरसात का मौसम हैं लाये ....
रिमझिम-रिमझिम बरसा पानी ,
खेत सब भर गये हैं खाली ....
बरसात के एक-एक बूंदों में ,
छिपा है शरबत का मीठा पानी ....
किसान भाई होते हैं होशियार ,
धान लगा देते हैं खूब हजार ....
काले-काले बादल छाए ,
बरसात का मौसम हैं लाये ....

लेख़क :सागर कुमार ,कक्षा :
अपना घर

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

कविता :जीवन की अमूल्य कहानी

जीवन की अमूल्य कहानी

इस धरती पर जिसने जन्म लिया
उसकी है एक अमूल्य कहानी
नहीं किसी ने गौर किया है
अपनी जीवन की कहानी को
सोच-सोच के न जाने कितने
सपने रखे थे उसने अपने मन में
नहीं किसी की वो सुनता था
करता था अपनी मनमानी
क्योंकि ओ था एक बच्चा
कर दी उसने अपनी नादानी
जब आयी उसकी जिम्मेदारी
हुई उसको बड़ी परेशानी
जब सोचा उसने अपनी कहानी
गिर पड़ा वह भूमि पर
दोबारा नहीं उठा वह बेचारा
हो गया खुदा को प्यारा

लेख़क :अशोक कुमार ,कक्षा-
अपना घर

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

कविता : मैंने उसे मारा गिल्ली

मैंने मारा उसे गिल्ली

एक थी इल्ली,
उसने पहनी झिल्ली....
रंग था उसका काला,
लगती थी भोली -भाली....
चलाती थी ट्रेन जैसी,
लगती थी क्रेन जैसी...
जब भी वह सोती थी,
रात में वह रोती थी...
एक थी इल्ली,
उसने पहनी झिल्ली....
मैंने उसे मारा गिल्ली,
वह पहुँच गयी दिल्ली....
एक थी इल्ली,
उसने पहनी झिल्ली....
लेख़क : मुकेश कुमार
कक्षा
:
अपना घर , कानपुर

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

कविता बेसहारा

बेसहारा
कोई क्या जाने उनकी बात ,
रहना जिनका हैं फुटपाथ ....
चलते रहते सड़क सड़क पर,
थकते नहीं वे भटक भटक कर.....
गुजरती सड़क पर उनकी रातें,
करते नहीं लोग उनसे बाते....
बचपन से होते बेसहारा,
देता नहीं घर में कोई सहारा ....
मिट सकता हैं यह अभिशाप,
लोग जब देगे उनका साथ....
लेख़क समीर सिंह S.V.V.लोधर कानपुर

सोमवार, 18 अक्टूबर 2010

कविता :यह था मुखिया का कहना

यह था मुखिया का कहना

आ गए इलेक्शन-आ गए इलेक्शन ,
मुखिया चले गाँव-गाँव वोट मांगन ....
हाथ जोड़े-पैर छुएं ,
सबके घर पर मुंह बनाए खड़े हुये ....
बोले दादी अम्मा वोट देना हमको ,
पेंशन,राशन सब दिलवाएंगे तुमको ....
झूंठ नहीं अब सच है कहना ,
सब वोट हमीं को देना सुन लो भाई बहना ....
मैं चुनाव जो जीता तो बनूंगा मुखिया ,
गावों में काम करवाउंगा बढिया से बढिया ....
नाली सड़क आदि सभी को बनवाऊंगा ,
विधवा पेंशन सबको दिलवाउंगा ....
दादी माँ आयीं बोली नहीं है घर में दाना ,
मेरे घर से उठवाकर लाओ बोरी राशन .....
यह था मुखिया का कहना ,
आ गए इलेक्शन-आ गए इलेक्शन .....

लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :
अपना घर

शनिवार, 16 अक्टूबर 2010

कविता ताजी खबर

ताजी खबर
आज की ताजी खबर ,
उल्लू चोंच दबाकर भागा.....
नेता जी को गुस्सा आया,
ली फिर मदद पुलिस की....
नेता जी ने लड़ा मुक़दमा,
गये बेचारे हार.....
आज की ताजी खबर,
उल्लू चोंच दबा कर भागा.... लेख़क -अनुज कुमार
कक्षा-
स्कूल -आर.के .मिशन स्कूल कानपुर

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

कविता मोर हमारा

मोर हमारा
मोर हमारा कितना रंग बिरंगा ,
फुदुक फुदुक कर नाच दिखाता....
फुर्र फुर्र कर वह झट उड़ जाता ,
मोर हमारा कितना रंग बिरंगा ....
हमारे पास न आता वो,
न हमारे संग खेला करता ....
फुर्र फुर्र कर वह झट उड़ जाता ,
मोर हमारा कितना रंग बिरंगा .....
लेख़क चन्दन कुमार कक्षा ५ अपना घर कानपुर

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

कविता कौन वीर

कौन वीर
कोहरा वीर न ,
बदल वीर सबसे....
बड़ी हैं सर्दी वीर,
सर्दी में सिकुड़ जाते ....
हैं ठिठुर जब हम,
जाते हैं सूरज को....
बुलाते हैं जब नहीं,
वह आता गुस्सा....
हमें आता.....
लेख़क सोनू कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

कविता देंगे हम को सदा सहारा

देगे हम को सदा सहारा
सत्य पथ के हम रही ,
हम अच्छे बच्चे उत्साही.....
हँसी खुशी में सदा रहते,
झगड़ा कभी नहीं हम करते....
हँसते और हँसाते रहते,
अपना घर में हम.....
प्यार सभी से करते हैं,
कभी न रोते और रुलाते.....
सब के मन को सुख पहुंचाते,
सब के गीत बनेगे बच्चे....
सच्चे मन के अच्छे बच्चे,
सारा जग परिवार हमारा.....
देगे हम सबको सदा सहारा,
विजय दीदी का यही हैं नारा.....
सबको शिक्षा यह अधिकार हमारा.....
लेख़क प्रदीप कुमार अपना घर कानपुर

बुधवार, 13 अक्टूबर 2010

कविता क्या होगा उनका

क्या होगा उनका
बाढ़ के प्रभाव से ,
संसार के हर गाँव में ....
लोग हुये परेशान,
डूब गये उनके घर द्वार....
उसमे से कुछ डूब गये
उन्ही में कुछ बचे....
जो बचे वो हो गये बेघर,
जो बचे तो घूम रहे....
उनको लोग देख रहे,
जहाजो से कुछ खाने को पंहुचा रहे ....
वे पैकटो को ऊपर से लोक रहे,
लोकने में कुछ कुचल गये
कुचल कर वही मार गये
क्या होगा उनका.....
क्या मिलेगा उन्हें मुआवजा .....
लेख़क अशोक कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

कविता गुडिया प्यारी

गुडिया प्यारी
क्या कहती हैं गुडिया प्यारी ,
क्या मागती हैं गुडिया प्यारी....
खाने को मागती हैं गुडिया प्यारी ,
ठुमुक ठुमुक कर नाचती हैं गुडिया प्यारी.....
सबका मन बहलाती हैं गुडिया प्यारी,
सब को लगती हैं गुडिया प्यारी.....
क्या कहती हैं गुडिया प्यारी ,
क्या मागती हैं गुडिया प्यारी....
लेख़क ज्ञान कक्षा अपना घर कानपुर

मंगलवार, 12 अक्टूबर 2010

कविता :तितली आई

तितली आई

तितली आई तितली आई ।
रंग-बिरंगी तितली आई ॥
फूलों पर वह जाती है ।
मुंह में रस भर लाती है ॥
मीठे गीत सुनाती है ।
सबका मन बहलाती है ॥
तितली आई तितली आई ।
रंग-बिरंगी तितली आई ॥

लेख़क :अजय कुमार
कक्षा :
अपना स्कूल

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

कविता रेल चली

रेल चली
रेल चली रेल चली ,
छुक छुक करती रेल चली ....
डग मग करती रेल चली,
एक डिब्बे में पहिये होते चार....
लोग बैठे होते एक हजार,
उसमे से आधे होते गरीब....
ज्यादा होते हैं अमीर,
रेल चली रेल चली....
लेख़क चन्दन कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

कविता :समाज को मूरख कहते

समाज को मूरख कहते

ये समाज है बुराइयों का ,
नहीं ठिकाना किसी की बात का .....
कौन सही है,कौन है गलत ,
नहीं किसी के पास कोई सबूत .....
सबूत है पर गवाह नहीं ,
जिन्दगी की राह पर किसी की कोई परवाह नहीं .....
जिसको नहीं है कोई परवाह ,
उसी को कहते हैं लापरवाह .....
लापरवाही करना हैं बहुत खराब ,
लोगों के पैसे चोरी कर लोग पीते हैं शराब .....
समझदार भी नासमझ की बाते करते ,
नहीं किसी के वो आगे झुकते .....
बाते करना है बहुत असान ,
पर ये पता नहीं की कैसे करें सभी का सम्मान .....
पता भी होता तो ये क्या करते ,
यही समाज को मूरख कहते .....

लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :
अपना घर

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010

कविता किसी को महशुस न करते

किसी को महशुस कराते
खूब चले अपने पैरो से ,
थकते तो किसी न कहते शाम को ....
एवं चुप रहते हर दम,
अपने दर्द को छिपाते अपनी आखों से......
कुछ न कहते निकलते आंसू तो,
फिर अगले दिन वही करते,
चलते अपने पैरो से....
पहुचाते मंजिल के किनारे,
कुछ संकट होता तो किसी से कुछ न कहते......
अपना फैसला खुद अपने आप करते,
अपने बदन से अपने दर्द को.....
अपनी आँखों में लाते,
लेकिन उसे आंसू के सहारे न निकालते.....
उस दर्द को मुस्कराहट से निकालते,
अपना दर्द अपने आप में बाँटते.....
किसी को दर्द महशुस न कराते .....


लेख़क अशोक कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

कविता समय की बात

समय की बात
समय समय पर क्या होता,
हर गाँव शहर में आदमी रोता.....
कोई रोटी के लालच में,
कोई पैसो के लालच में .....
समय समय पर क्या होता,
हर गाँव शहर में आदमी रोता .....
आदमी भूख से ही मार जाता,
और पता नहीं क्या होता....
जिधर भी देखो उधर ही,
आदमी ही हैं रोता.....
लेख़क ज्ञान कक्षा अपना घर कानपुर

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2010

मरना ही हैं सरल
मुसाफिर चला हैं लेके अपने खाली हाथो को ,
तुम भी तो समझो मुसाफिर की इंसानियत को....
सफ़र हैं बहुत ही दूर,
पर उसकी ताकत हो चुकी हैं चूर....
मुसाफिर चला हैं अपना पेट भरने को,
पेट के वास्ते सभी को छोड़ा एस ज़माने को .....
किसी को छाया हैं अमीरी का नशा,
कंगाल वही हैं जो न देखे गरीबो की दशा....
मुसाफिर चाहे मारे चाहे भूखे ही तडपे ,
हर कोई उसको ही हदाकाए.......
पेट भरना बड़ा ही हैं मुश्किल,
इससे अच्चा मरना ही हैं सरल....
लेख़क आशीष कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

कविता :वो हामिद कहाँ है

वो हामिद कहाँ है

मेला वही है ,
ईद वही है ....
चूल्हा वही है ,
दादी वही है ....
आज भी अगुंलियाँ ,
जलती दादी की हैं ....
आखों में उसके ,
समंदर भरा है ....
मगर आज अपना ,
वो हामिद कहाँ है ....
इस भीड़ में ,
वो खोया कहाँ है ....


लेख़क : महेश
अपना घर

कविता सही हमें नहीं पता

सही हमें नहीं पता
असमान हैं नीला नीला ,
कपडे पहने पीले पीले....
पानी बरसे होले होले,
असमान हैं क्या .....
हमें नहीं हैं पता ,
पानी क्यों बरता हैं....
बिजली क्यों गरजती हैं,
असमान हैं नीला क्यों....
यह हमें नहीं पता हैं,
यह हमारी मजबूरी हैं....
दूसरे हमें सताते हैं,
जो कोई भी पूछता हैं....
तो गलत बताते हैं ,
सही उत्तर हम नहीं जानते हैं....
असमान हैं नीला नीला,
कपडे पहने पीले पीले ....
लेख़क मुकेश कुमार कक्षा अपना घर कानपुर

शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

कविता छोटे पौधे

छोटे पौधे
छोटे पौधे कितने अच्छे ,
फूल लागे हैं कितने ....
गेंदा गुलाब हैं फूल अनेक,
बगीचे में लगते हैं सब इक....
पौधे हमें लगते अच्छे,
कितने प्यारे कितने अच्छे ....
कलियाँ खिलती खिलता फूल,
छोटे पौधे कितने अच्छे.....
पौधे हमें लगते अच्छे ,
कलियाँ खिलती खिलता फूल ....
कितने अच्छे लगते फूल....
लेख़क धर्मेन्द्र कुमार कक्षा अपना घर कानपुर