सोमवार, 11 अगस्त 2025

कविता: " वर्षा "

" वर्षा "
 रिमझिम वर्षा बरस गई ,
कच्ची पगडंडी की रस्ते को भी ,
हर कदम - कदम सींच गई। 
झींगुर की झंकार ,
मेढक की टर्र टर्र भी ,
शाम - सुबह तक खूब गूंजी। 
घर की आंगन में ,
तो कभी खेत - खलियान में ,
पानी की पतली धारा के संग। 
केचुएँ अंगणित मिले ,
वर्षा में धरती से उठती भाप से ,
भीगी मिट्टी की गर्म भी ,
पुरे वातावरण में धुल मिल गई। 
गरदे से देखते फ़िस्सर सरे पेड़ - पौधे ,
चुटकी में चम् उठी ,
झुकी - झुकी डाकियो में ,
नए नवीन पत्ते भी ,
अपने असली रंग में पाए। 
कड़कती धुप से बेताब ,
 मुरझाई साग - सब्जियाँ व मिठे फल , 
अब देखने में तंदरुस्त हो गई। 
जल से भरे तालाब में मेढक ,
प्यासे - पशु - पक्षी का भी ,
अब प्यासा जड़ से उजाड़ गए। 
वर्षाऋतु के आते ही ,
सुखी जमीं को जान मिल आई। 
रिमझिम वर्षा बरस गई ।।
कवि: पिंटू कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर। 

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