सोमवार, 11 अगस्त 2025

कविता: " मजे में थी जिन्दगी "

 " मजे में थी जिन्दगी  "
कभी - कभी सोचता हूँ सब खत्म हो गए। 
ये खुशी की पहाड़ कही गम हो गए। 
इतनी फुरसत नहीं है अब अपने आप को, 
जो देख सके बीते हुए सपने को। 
वो मस्त बचपन खेल रहा था आँगन में, 
क्या कभी लौट पाएगा वो समय बचपन में ? 
जब बेफिक्र होकर घूमता था। 
इस परेशानियों से दूर ,
जिन्दगी अपनी जीता था। 
तब दुख नहीं था कुछ खोने का ,
अब दुख है कुछ पाने का। 
कभी - कभी सोचता हूँ सब खत्म हो गए। 
ये खुशी की पहाड़ कही गम हो गए। 
कवि: निरु कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर। 

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