गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

कविता: ग्लोबल वार्मिंग........

ग्लोबल वार्मिंग........

बस, कार, ट्रक सभी चलाते है
उससे वातावरण गन्दा करते है॥
यदि वातावरण साफ़ है रखना।
तो धुआँ रहित साधन प्रयोग करना
क्योकि हो रहा है ग्लोबलवार्मिंग।
यह है सभी के लिए वार्निंग॥
सभी को है यदि बचाना
हर इंसा पेड़ खूब लगाना॥
पर्यावरण पर पड़ता रहा जो खतरा।
नहीं बचेगा इंसा का एक भी कतरा॥

लेख़क: आशीष कुमार, कक्षा , अपना घर

कविता: एक नया देश बना दो .....

एक नया देश बना दो .....

चाँद से सूरज को मिला दो।
दिलो में जमी बर्फ पिघला दो॥
मै बहुत जोर से प्यासा हूँ।
मुझे थोड़ा पानी पिला दो॥
जमी को आसमां से मिला दो।
दिल की हर नफरत भुला दो॥
पर्दे तो हिलते ही है हवाओ से।
ताकत है तो दीवारों को हिला दो॥
बादल को बादल से लड़ा दो।
आकाश में बिजली चमका दो॥
क्योकि ये जमी है बहुत प्यासी।
इसे जी भर पानी पिला दो॥
हर भरे गोदामों को तोड़ दो।
अनाजों की बोरियां खोल दो॥
हर कोई है यंहा पर भूखा।
हर भूखे को खाना खिला दो॥
सत्य और न्याय को जगा दो।
शांति और प्यार फैला दो॥
हर कोई जी सके सुख से।
ऐसे एक नया देश बना दो॥

लेख़क : आशीष कुमार, अपना घर, कक्षा 8

कविता: पागल है क्या इंसा ओ ....

पागल है क्या इंसा ....

पागल है क्या इंसा ओ।
जो देता सबको दुःख ओ॥
परेशानी है क्या उसकी।
दिखता है क्यों हरदम दुखी
उसकी परेशानी को कौन उभारे।
जो हो जाये वो सबके सहारे॥
पागल है क्या इंसा ओ।
जो देता सबको दुःख ओ॥

लेख़क: ज्ञान कुमार, कक्षा ७, अपना घर

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

कविता: अपने देश के नेता...

अपने देश के नेता...

है अपने देश के नेता ऐसे।
देखो खाते जनता का पैसे॥
घोटाले ये खूब है करते।
नहीं किसी से अब ये डरते॥
अरबो का है किया घोटाला।
जनता को भूखो मार डाला॥
नेता मिलकर करे पैसो का हाजमा।
स्विस बैंक में करते सारा पैसा जमा॥
अगर ये सारा पैसा वापस जाये।
देश की जनता माला-माल हो जाये॥
नेताओं की अब तो मिलकर करो दवाई
भ्रष्ट है जो भी नेता उनकी करो सफाई
है अपने देश के नेता ऐसे।
देखो खाते जनता का पैसे

लेख़क: सागर कुमार, कक्षा ७, अपना घर

कविता: वे कुछ बनने आये है ....

वे कुछ बनने आये है ....

घुस- घुस कर ट्रेनों में।
लोग ही लोग आये है॥
वे अपने बड़े-बड़े बैगों में।
किताबे भर-भर लाए है॥
वे इंजिनियर बनने आये है।
वे पी० एच० डी करने आये है॥
वे डाक्टर बनकर जायेगें।
फिर वापस लौट के आयेंगे
अब प्रोफ़ेसर बनने आयेंगे
अपने को बदल कर आयेंगे॥
वे अब अंग्रेजी ही बोला करते है।
वे शायद अब हिंदी से डरते है॥
हिंदी में अब लिख नहीं पाते।
हिंदुस्तान में जी नहीं पाते
वे किताबे भर - भर लाये थे।
अब रुपया भर-भर ले जाते है॥
जो ट्रेनों में कभी आये थे।
आज प्लेनों में ही जाते है॥
घुस- घुस कर ट्रेनों में।
लोग ही लोग आये है॥
वे अपने बड़े-बड़े बैगों में।
किताबे भर-भर लाए है॥


लेख़क: अशोक कुमार, कक्षा , अपना घर
"संपादक ", बाल सजग

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

प्याज की बात निराली ....

प्याज की बात निराली ....
कहते है आलू सब्जी का राजा है।
मगर प्याज ने बजाया सबका बाजा है॥
प्याज की बात निराली है।
लेकिन इसे खाना अब खयाली है॥
प्याज बिना सब स्वाद है सूना।
जैसे पानी बिन तालाब है सूना॥
प्याज की बढती इस महगाई से।
प्याज बिक रहा सरकारी दुकानों से॥
सब जनता हो गई है बेहाल
क्या होगा अब इस देश का हाल॥
जो पड़ गया है प्याज का आकाल।
यूं लगता है देश में गया भूचा

लेख़क: सागर कुमार, कक्षा ७, अपना घर

रविवार, 26 दिसंबर 2010

कविता: सर्दी का ये मौसम...

सर्दी का ये मौसम.....

सर्दी का ये मौसम बड़ा ही ठंढा- ठंढा।
फिर भी टीचर मारे बड़े जोर से डंडा॥
डंडा पड़ते ही अंगुली अकड़ जाती।
जब हाथों में गर्मी पड़ जाती॥
तब दर्द वह हमको लगती ।
अंगुलिया दर्द से हमें तड़पाती॥
मौसम तो है ये सबसे अच्छा।
पर ठंढ़ाती है हर एक कक्षा॥
अगर सर्दी का मौसम न आता।
तो स्वेटर, जैकेट पहनने को पछताता।।


लेख़क: आशीष कुमार सिंह, कक्षा ८, अपना घर

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

कविता :बाँस के नीचे साँप

बाँस के नीचे साँप

बाँस के नीचे था एक साँप
जो बैठे वहाँ पर रहा था काँप
कंपन के कारण हिल रही थी गर्दन
जिसके कारण वहीं पे होने लगा अपरदन
अपरदन होने से टूटा एक बाँस
जिससे वहीं पर साँप की रुक गयी सांस
बाँस के नीचे था एक साँप
जो बैठे वहां पर रहा था काँप

लेख़क :ज्ञान कुमार
कक्षा :
अपना घर

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

कविता; घरों में खुशहाली...


घरों में खुशहाली...

हवा चल रही है पुरवाई ।
खेतों में फैली है हरियाली ॥
कोयल की गीत है मधुर मतवाली।
सड़कों पर बज रहे है शहनाई ॥
घरों में बहुत है खुशहाली।
हवा चल रही है पुरवाई ॥


लेख़क: चन्दन कुमार, कक्षा ५, अपना घर

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

कविता: बचपन के रंग ....

बचपन के रंग ....

बचपन में माँ से लड़ना झगड़ना
उसके ही हाथों से रोटी फिर खाना
उसके साथ ही चलना और घूमना
गोदी में चढ़कर उसके मचलना
पापा से झट से पैसे ले लेना
पैसे से टाफी और इमली खाना
चिढ़ना-चिढ़ाना रोना-रुलाना
लुकना-छिपना हँसना-हँसाना
माँ की गोदी था प्यारा सा पलना
पकड़े जो कोई तो धोती में छिपना
ऐसा था प्यारा सा बचपन का रंग
गुजरा था जो मेरे माँ बाप के संग

अशोक कुमार , कक्षा , अपना घर

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

कविता: बिन पानी सब सून

बिन पानी सब सून

इस धरती पर है पानी की मारामार
तभी तो लोग करते पानी का व्यापार
क्या है ये गन्दा कोका कोला।
दिखने में लगता है काला-काला
गरीबो को लूटने वाला।
ये है लोगो की मौत का प्याला
फिर भी लोग इसी को पीते।
मना करो तो सीना तान के अड़ जाते
कहते मेरा पैसा हम कुछ भी पीये।
जीना हमें है हम कैसे भी जिए.. ?
पानी है धरतीवासियों का जीवन।
लोग सोचते है रूपए ही है जीवन
भला पानी हो इस धरती पर।
रुपया ही रुपया हो सबके घर
किसी नहीं ये सोचा होगा।
की बिन पानी तब क्या होगा
बिन पानी उगता अन्न बनता भोजन
तब असंभव हो जायेगा जीना सबका जीवन
पानी है तो ये धरती है जीवन सबको देती है
बिन पानी के रहने वालो की संख्या घटती है
अप्रैल, जुलाई, सितम्बर हो चाहे दिसंबर और जून
क्या होगा इनका मतलब जब बिन पानी सब सून


आशीष कुमार, कक्षा , अपना घर