सोमवार, 25 अगस्त 2025

कविता: "हवाए आ चली"

 "हवाए आ चली"
 ठंडी सी हवा गुजरी पैरो से ,
जो ऐसा ठंडक दे गया। 
दिल को दहका दिया इस तरह ,
जो दिल को भी भयभीत हो गया। 
रूह काँप उठे थे मेरे ,
जब देखा परछाई काले - सुनहरे बदल को ,
बस आँखे तिकी थी मेरी उस पर। 
हिम्मत तो मर गई ,
धीरे - धीरे पास आती गई। 
मैं खामोश था धड़ कने बढ़ती गई ,
चिल्लाने कि कोशिश तो थी मेरी। 
बस आवाज अटका था , 
पैर काँप रहे थे मेरे। 
पर मैं खामोश था। 
कवि: सुल्तान कुमार, कक्षा: 11th, 
अपना घर। 
 

कोई टिप्पणी नहीं: