मंगलवार, 7 अक्टूबर 2025

कविता: "मस्त मगन मेरी भी जिंदगी थी "

 "मस्त मगन मेरी भी जिंदगी थी "
मस्त मगन मेरी भी जिंदगी थी।  
न जाने कहा से दुखो का पहाड़ टूट पड़ा,
जीना कर रखा है मुश्किल अब मेरा 
क्या करे कुछ समझ नहीं आए रहा है?
जहाँ मै कभी हस्ता था अब रोया न जाए,
धीरे - धीरे से दुखो का पहाड़ बढ़ता जाए।
मस्त मगन मेरी भी जिंदगी थी।  
आपको मेरी खुशी देखी नहीं जा रहा क्या?
अरे मुझे भी जीने का हक़ है अपनी तरह से,
अब बस करो मुझे परेशान करना 
अब मुझे भी है जीना और मरना। 
न जने कौन सा परिंदा है तू, 
अब तक क्यों जिन्दा है तू ?
मस्त मगन मेरी भी जिंदगी थी। 
न जाने क्यों हसी नहीं आती है अब ?
रूठा रूठा सा लगता हूँ अकेला सा लगता हूँ। 
क्या ये कोई रिस्ता है। 
मस्त मगन मेरी भी जिंदगी थी। 
कवि: नीरु कुमार, कक्षा: 9th, 
अपना घर। 


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