सोमवार, 27 अक्टूबर 2025

कविता: "वो आखरी घर"

"वो आखरी घर" 
गाँव का वो आखरी घर 
जहाँ खामोशी, हमेशा बरकरार है 
किस खौफनाक मंज़र मे है 
जहाँ बस अजीब सी नजरे हट गई 
खुशियों की लड़ी गायब  हो गई 
बसेरा बन गया काली परछायो का 
अब घर बन गया इन बुराइंयो का 
कितने वर्षो से यहाँ खुशियाँ नहीं ठहरी 
इसकी गलियों में कब से लोगो की यादे नहीं लौटी 
सुने आँगन में कलियाँ नन्ही खिली 
लिखा मौन उस घर के लिए, मगर 
गाँव के आखरी घर में दुबारा खिशियाँ नहीं लौटी 
कवि: साहिल कुमार, कक्षा: 9th, 
अपना घर 

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