गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025

कविता: "पापा ज़रा बूढ़े हो चले है"

 "पापा ज़रा बूढ़े हो चले है"
अब कंधे झुक गए है, 
उम्र निकल भी रही है,
रोशनी आँखों की धुंधला रही है,
थोड़ा धीरे चलते है, 
और अब भूलने भी लगे है, 
मेरे पापा ज़रा बूढ़े हो रहे है।  
आज भी बचपन हमारा,
आँखों में उनकी झूलता है, 
बड़े हो रहे है विश्वास छोड़ बच्चा समझा है। 
हमारी आज भी चिंता करते है,
अपनी फिक्र छोड़ हमारा ख्याल रखते है, 
मेरे पापा ज़रा बूढ़े हो रहे है। 
कवि: साहिल कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर। 

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