मंगलवार, 21 अक्टूबर 2025

कविता: "हमारे संग के बच्चे"

"हमारे संग के बच्चे"
 हमने भी काम किये है ईट भठ्ठो पर,
ईटो की दीवार खड़े किये है,
अपने इन नन्हे हाथे से, अकार देखर बनाई है,
जलते आग में से ईटो को निकाला है,
इन हाथो की लकीरे भी मिटने लगी है,
अब ये जंजीरे भी टूटने लगी है। 
खड़ा कर दिया है बड़े - बड़े इमारते,
जिसका सामना करना मुमकिन था,
याद है आज भी मुझे जब जलते आग से ईटे को निकलता था,
हाथ में पड़ गए थे छाले, हाथ में पड़ गए थे छाले,  
पर हौसले अब भी थे निराले।  
धूप में जलते रहे कदम,  
सपनों ने फिर भी थामा दम।  
हर ठोकर ने कुछ सिखाया,  
हर आँसू ने रास्ता दिखाया।  
अब मंज़िल दूर नहीं लगती,  
क्योंकि मेहनत कभी खाली नहीं जाती।
 सारा का सारा बचपन तो पथाई से गुजरा है,
 जलते सूरज, तपती धुप से गुजरा है।  
उनको नहीं पता किया होता है जाट - पात का लेन देन,
उन्हें तो सिर्फ पढ़ाई चाहिए, एक नई जिंदगी के लिए। 
वे बड़ी - बड़ी इमारते जब दिखती है उन्हें, 
दिल की धरकने को हिला देने वाली काम करती है,
न जाने कियु उसे देख बेचैनी सी लगती है। 
खाने को खाना नहीं पीने को साफ़ पानी नहीं, 
जीने को कोई और जिंदगी नहीं है। 
झूझ रहे है कई लोग इस परेशानी से होक बर्बाद ,
जिंदगी उनकी भी चल रही है,जब तक है वो अवाद। 
 हमने भी काम किये है ईट भठ्ठो पर ,
ईटो की दीवार खड़े किये है।
तमाम ख्वाब अपने भी देखे होंगे पर कुछ हमारे भी है, 
अपनी इस ख्वाब को लेकर,
आपके साथ जीने की चाह भी  रखते है। 
 हमने भी काम किये है ईट भठ्ठो पर,
खड़ा कर दिया है बड़े - बड़े इमारते। 
कवि: नीरु कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर।  

कोई टिप्पणी नहीं: