रविवार, 26 अक्टूबर 2025

कविता: "दिवाली"

"दिवाली"
इस खुशियाँ की त्यौहार में,
हम अनजान सा बने घूम रहे है। 
सभी खुश है, मुस्कुरा रहे है ,
 और हम यहाँ गप्पे - सप्पे लड़ा रहे है, 
नीचे पटाके फूट रहे है, 
 तो कुछ चकरी से खेल रहे है, 
और हम उपर बैठे है,
झिलमिलाते आसमा को देख रहे है ,
हर तरफ से पटाके की आवाज नीचे बच्चो की शौर, 
पर किया करे झिलमिलाहट ,
को देख देख कर रहे है बोर। 
 इस खुशियाँ की त्यौहार में ,
आसमान को देखकर ही मजे ले रहे है।
कवि: गोविंदा कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर।  

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