"गाँव का वो आखरी घर"
जहाँ दुनियाँ मना रही है दिवाली,
उस गाँव की आखरी घर से पूछो जिसके, पास नहीं है पीने को पानी।
खुशी भी सही से मना नहीं पा सकते वो ,
जो हो सकता है वो सब कुछ करते है अपने बच्चे के लिए,
मिठाई से लेकर पटाके तक भी लेकर देते है उनके लिए।
खुद परेशान रहकर भी अपने बच्चे को खुश,
रखने की छमता रखते है अपने अंदर ,
अपनी दुखी को अलग कर के उनके साथ खुशी से रहते है,
गाँव का वो आखरी घर।
की दुखी में भी खुशी छिपी हुई है,
कुछ नहीं तो थोड़ा ही सा ही पर पटाके लाते है ,
दिये भी लाते है , पूजा भी करते है पर ,
उनका रोज का खाना वही होता है।
उसमे भी वे खुशी से रहते है, खा - पीके सपने भी देख लेते है ,
मेहनत वो भी करते है हर त्यौहार को अच्छे से मनाने के लिए पर ,
उनकी भी मज़बूरी है काम भी जरुरी है ।
जहाँ दुनियाँ मना रही है दिवाली,
वे झेल रहे अपनी परेशानी।
जहाँ दुनियाँ मना रही है दिवाली।
कवि: नीरू कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर
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