शनिवार, 1 मार्च 2025

कविता : " ख्वाबों पर पहरा "


 "ख्वाबों पर पहरा "
 ख्वाबों पर पहरा , 
पर हर - कदम कठिनाई से चला। 
किसी तरह उस और तक पहुँचा। 
जहा कब्र का निशान मिला 
हो रहा था मुझमें ,
पर  हमारे लिए वक्त काम था। 
पर अब मिला ,
ख्वाबो पर पहरा। 
चाँदनी रात की शाम थी। 
सोचा था कुछ अनोखा 
पर यह बात गिल को दर्द देता था। 
ख्वाबो पर पहरा ,
जैसे की सपनो का मर जाना। 
अब बस सुकून की लम्हे गुजारना 
चाहता हूँ। 
अब बात हो गई ख्वाबो से लड़ने की। 
जख्म का दाग अभी तक नहीं मिटा सका 
पर ख्वाबो पर पहरा ,
अभी तक  हटा नहीं सका। 

कविः अमित कुमार ,कक्षा: 10th 

अपना घर 

कोई टिप्पणी नहीं: