मंगलवार, 18 मार्च 2025

कविता : " ये मंजिल क्यों , क्यों है ये राह "

 " ये मंजिल क्यों , क्यों है ये राह "  
 तेरी मैं तलाश में 
मन - मन भटकता हूँ ,
हुआ नहीं कभी भेट ये मंजिल से  ,
एक बैठा जा किस वन - बाग में ,
दिखता नहीं तू कैसा है रे ,
धुँधला - धुँधला क्यों राह में ?

उम्मीदे झलख रही है ,
मन यूँ ही निराश है ,
चार कदम चले बिना है।  
चरण छितराए विराम करुँ, 
पड़ा हु आधी राह में। 
पूछ रहा हूँ तुझसे ये मंजिल ,
गुमसुम , क्यों है ये राह में ? 

माँ - बहन के हाथों खाए ,
हो रहे हैं लम्बे वक्त। 
ठेंस - ठेंस है यहाँ पे इतना ,
की भर आए मेरे आँख ये मंजिल। 
इस जख्म को करे कौन मरहम - पट्टी ,
मैं अकेला ही इस एकांत में। 
कहाँ मिलेगी सतरंग ये मंजिल ,
गरीबी  क्यों है ये राह में। 
कवि : पिंटू कुमार ,कक्षा : 10th,
अपना घर।  

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