सोमवार, 3 मार्च 2025

कविता: " बचपन के दिन "

 " बचपन के दिन "
 सुबह से लेकर शाम तक शाम तक। 
खेलता रहता पुरे दिन तक 
थकता न था फिर भी 
वे भी क्या दिन थे। 
 मेरे बिते हुए बचपन के दिन थे। 
. खाना और खेलना लगता था 
पुरे जीवन भर। 
जब नहीं निकले थे मेरे पर ,
पापा के मार से डरता था।  
जब गुस्सा करता था। 
माँ के पास जाया करता था। 
वे भी  क्या दिन थ,
वे मेरे बचपन के दिन थे। 
गुब्बारे वाले आते थे ,
माँ चारो ओर पुकारते थे। 
कभी खेलौना वाला आता था। 
दस -पाँच का ही सही 
खेलौना खरीद ले देती थी। 
माँ तो माँ है वे कभी दुखी नहीं होती थी। 
बचपन के  वे भी दिन,
गुजरा यारो के बिना। 
वे भी क्या दिन थे,
वे मेरे बिते हूँए दिन थे। 
कविः पंकज कुमार , कक्षा: 10th 
अपना घर 

रविवार, 2 मार्च 2025

कविता :" बंद पिंजरे में "

" बंद पिंजरे में " 
 कब तक बंद रहुगा इस पिंजरे में 
 एक दिन तो बहार आना हैं। 
बहुत ही जी लिए घुट - घुट  कर, 
कुछ  करके तो दिखाना हैं। 
वे वक्त कब आएगा ,
जब करुगा सपने सकार 
 एक मौका देकर तो देखोये। 
नहीं जाने दुगा बेकार ,
खुश नहीं हूँ अपनी इस जिंदगी से 
एक बार तो बहार आना हैं। 
देखाऊगा मंजिल को छूकर 
लोगो की मन की जलने 
 को मिटाना है। 
कविः मंगल कुमार ,कक्षा: 9th 
 अपना घर  

शनिवार, 1 मार्च 2025

कविता : " ख्वाबों पर पहरा "


 "ख्वाबों पर पहरा "
 ख्वाबों पर पहरा , 
पर हर - कदम कठिनाई से चला। 
किसी तरह उस और तक पहुँचा। 
जहा कब्र का निशान मिला 
हो रहा था मुझमें ,
पर  हमारे लिए वक्त काम था। 
पर अब मिला ,
ख्वाबो पर पहरा। 
चाँदनी रात की शाम थी। 
सोचा था कुछ अनोखा 
पर यह बात गिल को दर्द देता था। 
ख्वाबो पर पहरा ,
जैसे की सपनो का मर जाना। 
अब बस सुकून की लम्हे गुजारना 
चाहता हूँ। 
अब बात हो गई ख्वाबो से लड़ने की। 
जख्म का दाग अभी तक नहीं मिटा सका 
पर ख्वाबो पर पहरा ,
अभी तक  हटा नहीं सका। 

कविः अमित कुमार ,कक्षा: 10th 

अपना घर