गुरुवार, 4 सितंबर 2025

कविता: "सपने सकारने हैं"

 "सपने सकारने हैं"
 ख्वाब जो देखे , वो अब बिखड़ गया , 
पहले तो पास में थी , पर अब लगता बिखर हो गया। 
अब तो लगता है शायद , 
मन ने भी कोशिश करना छोड़ दिया। 
वरना ये मन मेरा न जाने क्यों , 
काम करना छोड़ दिया। 
हरे हैं  न जाने कितने मैंच फिर भी कोशिश करना छोड़ दिया,
पर कभी लगता है सांत रहने में ही भलाई हैं। 
चिल्लाने का कोई फायदा नहीं। 
बस एक बार मुस्कुरा के देख चाँद भी हस देगा।  
 ख्वाब जो देखे , वो अब बिखड़ गया। 
कवि: गोविंदा कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर। 

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