गुरुवार, 25 सितंबर 2025

कविता: " रात कब ढल गए "

 " रात कब ढल गए "
 सोचते - सोचते इस जिंदगी को ,
खो गया जाने कहाँ। 
कितनी जिद्दी है ये तंग रहे ,
जो छोड़ गए है इस हल में ,
सबकुछ छूट रहा है। 
सोचते सोचते रत कब ढल  गए ,
कुछ एहसास न रहा है,
 अब सब्र जरा खो रहा है। 
अब सब्र जरो खो रहा है। 
विश्वास जरा टूट रहा है उखड रही है। 
आत्म विश्वास की दीवारे ,
समा रहा है गुप अंदर में सोचते हुए ये ,
कब रात ढल गए है कुछ एहसास न रहा। 
कवि: नीरज, कक्षा: 7th  
अपना घर।   

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