" रात कब ढल गए "
सोचते - सोचते इस जिंदगी को ,
खो गया जाने कहाँ।
कितनी जिद्दी है ये तंग रहे ,
जो छोड़ गए है इस हल में ,
सबकुछ छूट रहा है।
सोचते सोचते रत कब ढल गए ,
कुछ एहसास न रहा है,
अब सब्र जरा खो रहा है।
अब सब्र जरो खो रहा है।
विश्वास जरा टूट रहा है उखड रही है।
आत्म विश्वास की दीवारे ,
समा रहा है गुप अंदर में सोचते हुए ये ,
कब रात ढल गए है कुछ एहसास न रहा।
कवि: नीरज, कक्षा: 7th
अपना घर।
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