रविवार, 16 नवंबर 2025

कविता: "बहारों का साथ छोड़ना"

"बहारों का साथ छोड़ना"
 ए सदाएँ पूछती है इस बहारों से, 
क्या जिया तुमने दुनिया में ?
जिंदगी भी रूठी और साथ भी छूटा ,
न जाने कैसा रिस्ता टुटा ,
हर बदलते मौशम में ,
कशमकश भरी जिंदगी में ,
मिलती नहीं नजरे - नजरे से ,
मुस्कुराकर छिप जाती है इन भीड़ भरी सड़के पे। 

बहारो ने रास्ता छोड़ा, सदाओं ने साथ भी,
आँखों ने रोना छोड़ा, चेहरे ने मुस्कुराना भी ,
बहारो ने साथ छोड़ा और तुमने हाथ भी ,
जिंदगी भी रूठी और साथ भी छूटा।

अब पूछती है सदाएँ इन बहारों से ,
क्या जिया तुमने दुनिया में ,
जिंदगी भी रूठी और साथ भी चुटी ,
न जाने कैसे ये रिस्ता टुटा। 
कवि: साहिल कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर। 

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