"अँधेरे में जलता दीपक"
अब गुमसुम हो रही गालियाँ ,
अब पराए हो रहे अपने लोग।
अब कठिनाई की मेधा चली आई मंडराते हुए।
अँधेरी रातो की चाँदनी भी छीन ली गई।
अब बस उम्मीद की दीपक जल रहा मुझमे।
सोचकर भी नहीं मिल सकता वह पल ,
जो कभी सबसे कीमती हुआ करते थी।
यह जमी भी मुझसे रूत चुकी है ,
यह मुस्कान भी मुझसे चीन चुकी।
सब पल भर की सोच में ,
अपने मन की इच्छा को बदल लेता हूँ।
अब गुमसुम हो रही गालियाँ।
अब पराए हो रहे अपने लोग।
कवि: अमित कुमार, कक्षा: th,
अपना घर
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