खेल खिलौने पढना लिखना,
सब छूटा इस बचपन में ....
धमा चौकड़ी उछल कूद,
खोया सिंदूर के रंगों में....
हुई पराई सब अनजाना,
देखो मेरे इन आँखों में....
घर के चौके घर के चूल्हे,
खेल बने अब आँगन में ......
तुमसे बस इतना मै पुछू,
ये सजा दिया क्यों बचपन में
क्या लौटा पाओगे तुम ,
मुझको मेरे बचपन में....?????महेश कुमार, अपना घर
4 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया।
mahesh bhai namaskar,kab khatam hogo yah sab aab to desh bhi azad huy 63 sal beet gaye hai......thankas a lot
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संपादक : सरस पायस
वास्तव में बच्चों का बचपन कहां है ? सिंदूर में गुम न हुआ तो आजकल किताबों और भविष्य की उलझन को सुलझाते-२ बचपन क्या जवानी भी खो रही है । महेश कुमार जी आपकी कविता मन को छू गई...seema sachdev
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