" हटाते हैं कचरों का ढेर "
क्या आशा करके तूने छोड़ ये देश,
जहाँ पड़ा है कचड़ों का ढेर |
जिस को तूने आज़ाद कराया,
उसने तुझे इसे मन से हटाया |
प्रदूषित है यहाँ का हवा और पानी,
बिलक - बिलक मर रहे प्राणी |
क्या आशा करके तूने छोड़ ये देश,
यहाँ पड़ा है अत्याचारों का ढेर |
हर इंसान है डरा सहमा,
तब भी उसे शान्त है रहना |
तुम थे इस देश की शान,
तुमको खोकर हो गए अनजान |
न करो अब तुम देर,
अब हटाते हैं यह कचरों का ढेर |
क्या आशा करके तूने छोड़ ये देश,
कवि : कुलदीप कुमार , कक्षा : 8th , अपना घर
कवि परिचय : यह कविता कुलदीप के द्वारा लिखी गई है जो की छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं | कुलदीप ने यह कविता फ़ैल रहे भ्रस्टाचारों
के प्रति लिखी है की कैसे धीरे धीरे लोग इस देश से जा रहे है जिससे देश और भी कमजोर हो रहा है |
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