गुरुवार, 2 जून 2011

कविता -बढ़ता ही गया

बढ़ता ही गया 
रात को किसी के घर से निकला ,
वो था शायद अन्दर से पगला .....
शायद वो नयी राह चला था ,
किसी के पैसे के झंझट में पड़ा था......
रास्ते में उसको एक राही मिला ,
जैसे उसको लगा कोई पहाड़ खड़ा....
लेकिन वो पहाड़ से टकरा कर आगे बढ़ा,
और आगे जीवन में बढ़ता ही गया .....
रात को किसी के घर निकला ,
वो था शायद अन्दर से पगला .....
लेखक -ज्ञान कुमार 
कक्षा -८ अपना घर ,कानपुर

5 टिप्‍पणियां:

pallavi trivedi ने कहा…

wah wah... kya khoob likha hai. god bless u.

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (04.06.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:-Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
स्पेशल काव्यमयी चर्चाः-“चाहत” (आरती झा)

रंजन (Ranjan) ने कहा…

बहुत सुन्दर...

Smart Indian ने कहा…

गज़ब!

Chaitanyaa Sharma ने कहा…

बहुत सुन्दर...