शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

कविता :समाज को मूरख कहते

समाज को मूरख कहते

ये समाज है बुराइयों का ,
नहीं ठिकाना किसी की बात का .....
कौन सही है,कौन है गलत ,
नहीं किसी के पास कोई सबूत .....
सबूत है पर गवाह नहीं ,
जिन्दगी की राह पर किसी की कोई परवाह नहीं .....
जिसको नहीं है कोई परवाह ,
उसी को कहते हैं लापरवाह .....
लापरवाही करना हैं बहुत खराब ,
लोगों के पैसे चोरी कर लोग पीते हैं शराब .....
समझदार भी नासमझ की बाते करते ,
नहीं किसी के वो आगे झुकते .....
बाते करना है बहुत असान ,
पर ये पता नहीं की कैसे करें सभी का सम्मान .....
पता भी होता तो ये क्या करते ,
यही समाज को मूरख कहते .....

लेख़क :आशीष कुमार
कक्षा :
अपना घर

2 टिप्‍पणियां:

गजेन्द्र सिंह ने कहा…

बहुत खूबसूरती के साथ शब्दों को पिरोया है इन पंक्तिया में आपने .......

थोडा समय यहाँ भी दे :-
आपको कितने दिन लगेंगे, बताना जरुर ?....

Dr.J.P.Tiwari ने कहा…

यही तो सुविधा है .स्त्रीलिंग और पुल्लिंग का कोई भेद है ही नहीं .फिर सभी तो सेक्युलर हैं .घोर मजहबी से लेकर अनीश्वरवादी ,यहाँ तक की राष्ट्र विरोधी हत्यारे भी सेक्युलर हैं