कविता - बरसात का मानसून
ठंडी में हैं क्या पानी बरसा .
जीव जंतु की हो गयी अब दुर्दशा.....
वर्षा से जब धरती पर गिरी बुँदे ,
उस समय मुझे ऐसा लगा ......
जैसे आ गया हैं बरसात के ,
महीने का मानसून ......
अब धूप भी नहीं निकल रही हैं ,
जमीन में अब पैर फिसल रहे .......
कही धोखा न हो जाये ऐसा ,
जिसमे लग जाये ढ़ेर सारा पैसा .......
ठंडी में हैं क्या पानी बरसा .
जीव जंतु की हो गयी अब दुर्दशा.....
वर्षा से जब धरती पर गिरी बुँदे ,
उस समय मुझे ऐसा लगा ......
जैसे आ गया हैं बरसात के ,
महीने का मानसून ......
अब धूप भी नहीं निकल रही हैं ,
जमीन में अब पैर फिसल रहे .......
कही धोखा न हो जाये ऐसा ,
जिसमे लग जाये ढ़ेर सारा पैसा .......
लेखक - ज्ञान कुमार
कक्षा - 8 अपना घर , कानपुर
2 टिप्पणियां:
achchha hai
achchha hai
एक टिप्पणी भेजें