इस भूमि के हर किनारे से।
देखों इस आकाश को॥
कंही काला कंही सफ़ेद।
क्यों है इसका ऐसा रंग॥
क्या किसी ने सोचा है।
उसको पास से देखा है॥
क्या किसी ने उसको समझा।
पत्थर है या भाप का गोला॥
काश की मै भी नभ उड़ जाता।
आकाश को पूरा देख के आता॥
मेरी समझ में आ जाता आकाश।
जिससे मेरा भ्रम हो जाता साफ॥
जब भी देखू आकाश को।
मन मचले उड़ जाने को ॥
लेख़क: अशोक कुमार, कक्षा ८, अपना घर
6 टिप्पणियां:
bahut sundar bhav...bahut sundar kavita
nice
प्यारी कविता....
सक्रांति ...लोहड़ी और पोंगल....हमारे प्यारे-प्यारे त्योंहारों की शुभकामनायें......
जब भी देखू आकाश को।
मन मचले उड़ जाने को ॥
jigyasa ki udaan aisee hee rahi to ek din jaroor nabh ko paas se dekhoge..
shubhkaamnayen.
वाह👌
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