बुधवार, 1 सितंबर 2021

कविता : "किस्मत "

"किस्मत "

किस्मत से है हारे ये |

पर सपने है सवारे ये ,

दूर -दूर पैदल चलकर | 

आँखों में उम्मीद को लेकर ,

बढ़ रहे है मंजिल की ओर | 

दिन में पापा की सिर्फ एक रोजी ,

जो लाता  घर शाम की रोटी | 

पर न है हारे ये ,

पर सपनो को सवारे ये | 

समाज से आगे चलकर ,

घर वाले से लड़कर | 

जाना चाहते है उस छोर ,

दिल में  आशा लेकर | 

बढ़ रहे है  मंजिल के ओर ,

कवि : देवराज कुमार 

अपना घर

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