बुधवार, 12 अगस्त 2009

कविता: सब्जी की गाड़ी

सब्जी की गाड़ी

आलू बैगन की थी गाड़ी,
उसमें बैठी दस सवारी...
पहिया बने थे धनिया भइया,
हार्न बनी थी लौकी...
स्टेरिंग बने थे कद्दू जी,
गेयर बनी थी मूली...
लाइट बने थे लाल टमाटर,
दिन में बैठे थे मुंह बंद कर...
जैसे ही अँधेरा घिर आता,
चलते थे अपना मुंह खोलकर...
सीट बने थे गोभी जी,
ड्राईवर बने थे शलजम जी....
एक दिन की हम बात बताएं,
सभी जरा सा गौर से सुनिए...
शाम को सूरज ढलने को आया,
चारो तरफ़ अँधेरा छाया...
आपस में दो गाड़ी लड़ गई,
एक दूजे से दोनों भिड गई
एक थी लकड़ी की गाड़ी,
दूजी थी सब्जी की गाड़ी...
सब्जी की गाड़ी टूट गई,
अलग - अलग वो छिटक गई...
सवारी सारे कूद पड़े थे,
गाड़ी से वे दूर खड़े थे...
सबने मिलकर सब्जी को उठाया,
घर ले जाकर सबको बिठाया...
घर में सबने सब्जी बनाया,
बच्चे बूढे सबने मिल खाया...

लेखक: आदित्य कुमार, कक्षा ७, अपना घर

5 टिप्‍पणियां:

Vinay ने कहा…

आदित्य कुमार को मेरी तरफ से शुभकामनाएँ

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

होनहार बीरवान के होत चिकने पात............... भैया, गाडी बिलकुल सही दिशा में जा रही है, आप चलाते रहिये ! मेरी हार्दिक शुभकामनाये !

vallabh ने कहा…

आदित्य को बधाई... अगर लकडी की गाड़ी से तुम्हारी गाड़ी नहीं लड़ी होती तो हम सब्जी मंडी में तुमसे मिलते....

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

आज़ादी की 62वीं सालगिरह की हार्दिक शुभकामनाएं। इस सुअवसर पर मेरे ब्लोग की प्रथम वर्षगांठ है। आप लोगों के प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मिले सहयोग एवं प्रोत्साहन के लिए मैं आपकी आभारी हूं। प्रथम वर्षगांठ पर मेरे ब्लोग पर पधार मुझे कृतार्थ करें। शुभ कामनाओं के साथ-
रचना गौड़ ‘भारती’

Randhir Singh Suman ने कहा…

आदित्य कुमार...........good