सोमवार, 15 जून 2009

कविता: एक किसान गया कलकत्ता

एक किसान गया कलकत्ता

एक किसान गया कलकत्ता।
उसने खाया पान का पत्ता॥
मुंह हो गया उसका लाल।
रात में किया मुर्गे को हलाल॥
जमकर उसने मुर्गा खाया।
किसी को घर में नही बताया॥
घर में मांस की बदबू आई
उसकी पत्नी सह नही पाई॥
पत्नी उसकी पड़ी बीमार।
किसान ने मन में किया विचार॥
मांस कभी खाऊँगा।
नहीं किसी को सताऊंगा॥
अबकी बार गया कलकत्ता।
नहीं खाऊँगा पान का पत्ता

लेखक: मुकेश कुमार, कक्षा , अपना घर


6 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत् सुन्दर प्रेरक बाल रचना के लिये बधाई आभार्

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा संदेश.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बढिया संदेश.

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

बेटे,
बहुत अच्छा लिखा है आपने, बस ऐसे ही लिखते रहिये,
और खूब खुश रहिये

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

अपने लेखन को जारी रखें
विभिन्‍न प्रकार के पत्‍तों को अपनायें
प्रदूषण से समाज को बचाएं
इसी तरह समाज को समस्‍याओं से
निजात दिलाएं
आशीर्वाद।
प्रसन्‍न रहें।

बीना ने कहा…

खूब अच्छी तुक्बन्दी की है आपने ।बधाई