शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

कविता : बदल कर देखें

" वतन के खातिर चलना "

यूँ दर  -दर भटकना,
खाली पैर वतन के खातिर चलना | 
कितना कठिन लगने लगा ,
पैरों में छाले पड़ने लगे हैं | 
भूख से पेट कटने लगा,
इन कड़ी धूप से दिमाग फटने लगा |
आँसुओं की धाराएँ बहने लगी है,
जिंदगी भी हमसे कुछ कहने लगी है | 
सुबह से शाम तक दर -दर भटकना,
वतन के खातिर यूँ चलना | 
शायद उस मंजिल तक पहुँच जाएगें,
फिर अपने को देश के नौजवान  कह पाएंगें | 

कवि : सार्थक कुमार ,कक्षा : 10th , अपना घर

कवि परिचय : यह कविता सार्थक के द्वारा लिखी गई है जो की बिहार के रहने वाले हैं | सार्थक पढ़ने में बहुत होशियार है और दूसरों की मदद करना बहुत अच्छा लगता हैं | उम्मीद है सार्थक और भी अच्छी कवितायेँ लिख दूसरों को प्रेरित करेंगें |

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