" नहीं यह तो फिर क्या है बनारस "
खुद चलकर जहाँ उतरी गंगा ,
देवालय खड़े जहाँ बड़े - बड़े ,
फैलाई खुशियाँ दूर - दूर तक ,
ठहरा मनमोहक पावन सब ,
दिल और मेरी जान बनारस।
आए बहरे खुशियाँ बाँटे ,
खुद चलकर जहाँ उतरी गंगा ,
देवालय खड़े जहाँ बड़े - बड़े ,
फैलाई खुशियाँ दूर - दूर तक ,
ठहरा मनमोहक पावन सब ,
दिल और मेरी जान बनारस।
आए बहरे खुशियाँ बाँटे ,
तट के संग उछले कूदे ,
रंग में अपने रंग लेती है ,
इतनी पावन यह धरती है.
खुशहाली जहाँ कण कण में है ,
नहीं यह तो फिर क्या है बनारस।
इतनी पावन यह धरती है.
खुशहाली जहाँ कण कण में है ,
नहीं यह तो फिर क्या है बनारस।
कवि : साहिल कुमार, कक्षा : 9th
अपना घर।
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