शुक्रवार, 2 मई 2025

कविता : " नहीं यह तो फिर क्या है बनारस "

" नहीं यह तो फिर क्या है बनारस " 
खुद चलकर जहाँ उतरी गंगा ,
देवालय खड़े जहाँ बड़े - बड़े ,
फैलाई खुशियाँ दूर - दूर तक ,
ठहरा मनमोहक पावन सब ,
दिल और मेरी जान बनारस। 
आए बहरे खुशियाँ बाँटे , 
तट के संग उछले कूदे ,
रंग में अपने रंग लेती है ,
इतनी पावन यह धरती है.
 खुशहाली जहाँ कण  कण में  है ,
 नहीं यह तो फिर क्या है बनारस। 
कवि : साहिल कुमार, कक्षा : 9th 
अपना घर। 


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