मंगलवार, 22 नवंबर 2022

कविता : "रूठ गई वह डाली"

"रूठ गयीं वह डाली"

रूठ गई वह डाली,

जिस पर फूल खिले थे वह निराले ।

सुबह की वह किरण जो ,

पेड़ के मन को कर देती हरियाली ।

वह आज दिख नहीं रही है ,

कौन सी मौसम बन गई उसके लिए पराई ।

पूंछ  रही है वह सबसे ,

क्या हमने कोई गड़बड़ कर दी भाई ।

जिंदगी हो या फिर मौत ,

पलंग बनकर निभाता हूँ ।

जिंदगी में आखिरी समय भी ,

  तुम्हारे शरीर को पावन कर आता हूँ ।

फिर भी मेरी जिंदगी की ऐसी मजाल ,

उखाड़ने के लिए लोग हैं बेक़रार ।

कब पहुंचेगी मेरी लफ्जों की गुहार ,

एक सांस में है मेरे जीवन का संचार ।

फिर भी क्यों रूठ गई वह डाली ,

जिस पर फूल खिले थे वह निराले ।

कवी: विक्रम कुमार, कक्षा 12th 

अपना घर

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