"बढ़ती ठंडी"
ये मौशम भी न कितना सुहाना है ,
इस ठंडी को भी हर साल नवंबर में आना है।
कर देता है मुशिकल जीना ,
यहाँ तक की पानी को कर रखता है ठंडा ,
स्वेटर हो या जैकेट सबको करता है फ़ैल ,
ये ठंडी कर देता है कम्बल को भी फ़ैल।
रातों को ओस गिरता है ,
सबको घर में ही बैठता है।
ये मौशम भी न कितना सुहाना।
अब रात हो रही है लम्बी दिन को कर दिया है खबरदार ,
रुक - रुक कर चल है अब हमारी जिंदगी इस ठंडी के मौशम में ,
मुशिकल कर रखा है जीना बिन कम्बल में।
ये मौशम भी न कितना सुहाना है ,
इस ठंडी को भी हर साल नवंबर में आना है।
कवि: निरु कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें