शुक्रवार, 5 दिसंबर 2025

कविता; "मुस्कुराती दुनिया"

"मुस्कुराती दुनिया"
 ये हस्ती हम्मारी जमीन, सुबह का का उगता सूरज,
खिलखिलाता सा आसमाँ ,
दिश बदलती हवाए चलती रहते है। 
ऐसा लगता है किसी का सन्देश लाता है ये हवाए ,
सुरज की गर्मी से येआसमाँ रूठा - रूठा सा लगता है,  
न किसी के चेहरे पर कोई हसी है, 
क्या हो गया है आसमाँ को एक बार तो मुस्कुरा दे
तेरे मुस्कुराने से फूलो को खिला दे। 
वो उगता सूरज भी ढल जाएगा,
हम्मन आरी हस्ती जमीन। 
कवि: अजय II, कक्षा; 6th,
अपना घर। 
 

कविता: "क्या हो गया है मुझे ?"

"क्या हो गया है मुझे ?"
क्या हो गया है मुझे ?
थोड़ा सा गुस्सा तो कही चिड़चिड़ापन होने लगा हूँ,
मेरे शांत मन को बहकाने लगा है,,
गुस्सा भी दिलाने लगा है
क्या हो गया है मुझे ?
अब तो कुछ भी याद नहीं रहता है,
पीछे हटता जा रहा हूँ,
अंदर ही अंदर टूट रहा हूँ,
मेरे हर दोस्त दूर हो रहे है,
बात करने का मन नहीं करता है, 
क्या हो गया है मुझे ?
मैं पागल हो रहा हूँ इन सब चीजों से,
दिन पे दिन दूर हो रहा हूँ, 
खाने का तो मन करता है पर खो जाते हो, 
बार - बार मन मेरे को इधर - उधर भटकता हो,
सब चीज तो मेरा गुस्सा करवाता है 
क्या हो गया है मुझे ?
कवि: निरु कुमार, कक्षा; 9th,
अपना घर। 

कविता: "मेरे पापा"

"मेरे पापा"
कभी - कभी उम्मीदे तो नहीं होती,
 पर फिर भी उम्मीद खोऐ नहीं ,
आँखे से आसु तो आता है ,
मेरे पापा कभी रोते नहीं। 
शरीर तो अक्सर हार मान लेता है काम करते - करते ,
पापा को भी तो घर चालना है,
शायद इसलिए पापा कभी पीछे नहीं होते है,
मेरे पापा कभी रोते नहीं। 
दिन के कमाए हुए पैसे कम होते है,
शायद इस वजह से रात को भी काम करने से पीछे हटते नहीं, 
हर बार तो आँशु आता है, पर पापा कभी रोते नहीं ,
शरीर रुट जाता है ,
मन हार मान लेता है ,
पर फिर भी कही पीछे हटते नहीं ,
मेरे पापा कही रोते नहीं। 
कवि: गोविंदा कुमार, कक्षा: 9th,
 अपना घर। 

 

सोमवार, 1 दिसंबर 2025

कविता: "सितारे"

"सितारे"
 गिनने की कोशिश की तारो को,
 सौ बार नहीं हजार बार ,
पाने की कोशिश की इन सितारों को ,
हस्ते और गाते चमकते है ,
रात अँधेरे में। 
खुसियों से बंधे रहते है ख्वाब में ,
कितने सारे है ये आसमान में,
रोशनी से अपनी जगमगा देते है ,
काली रात को। 
 मिटा देते है अपनी रौशनी से ,
राते  की काली हस्तियां को ,
कभी सुनो तो क्या कहते है ,
शायद खुश रहने का देते है संदेश। 
कवि: साहिल कुमार, कक्षा: 9th,
 अपना घर। 

शुक्रवार, 28 नवंबर 2025

कविता: वो बचपन का भी किया जवना था।

"वो भी किया जवना था"
हमने भी खाए है तेज चलती हवा की झोके, 
वो बारिश की गिरती बूंदे में हमने भी खेले है ,
वो बचपन का भी किया जवना था। 
 बारिश की पानी में नाव को बहाना था ,
तूफान हो या आंधी स्कूल ही था ,
दोस्ती यारी तो वही होती थी ,
घर में तो सिर्फ पापा की ही ख्वाफ चलती थी ,
वो बचपन का भी किया जवना था। 
   की हमने भी मार खाए है पापा से ,
गुस्सा हो के भी खुश रह लिया करता था ,
 नहीं तो पापा की वो मार याद कर लिया करता था। 
उनका गुस्सा भी हम ही दिलते थे ,
उस गुस्से को झेलना भी मेरे काम हो जाता था ,
हमने भी खाए है तेज चलती हवा की झोके,
वो बचपन का भी किया जवना था। 
कवि: गोपाल II, कक्षा: 6th,
अपना घर। 

गुरुवार, 27 नवंबर 2025

कविता: "दिल में राज करता मेरा भाई"

"दिल में राज करता मेरा भाई"
 भाई आज भी तू जिन्दा है मेरे दिल में ,
तेरे हर एक बात याद दिलाती है ,
मुझे आज भी बहुत याद आती है। 
तेरे बिन सब कुछ फीका फीका सा लगता है ,
यहाँ तक की मेरा चेहरा रुठा - रुठा सा लगता है ,
जब तू उदास सा दिखता है ,
सूरज भी उदास सा अपने घर से देखाई देता है ,
भाई आज भी तू जिन्दा है मेरे दिल में। 
राजा के तरह बैठा के रखा है तुम्हे, 
बस ताज पहनाना बाकी है ,
चाँद भी रुठी - रुठी सी लगती है ,
भाई आज भी तू जिन्दा है मेरे दिल में। 
तेरे सामने सुरजा और चाँद भी बेकार है, 
तेरे लिए तो ये बनाया मेरे द्वारा संसार है।
कवि: निरु कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर।  

कविता: "स्वागत करने को तयार है"

"स्वागत करने को तयार है"
 हर कदम ,हर राह ,
परेशानियाँ परेशान करने को तयार है ,
कठिनाई तुम्हारी राह देख रही है , 
उन्हें बस तेरा स्वागत करना है। 
काटे होंगे, रास्ते बहुत होंगे अपने मन को संभालना  ,
फूल तो तेरे नसीब में है ही नहीं ,बस काटे से स्वागत होगा। 
तेरे लिए तो आएंगे बहुत सरे पर न होंगे तुम्हारे ,
पसीना तुम्हे बहाना है , बाकी तो आएंगे देखने। 
जोश तो दिलाना उनका काम है 
शेरो में शेर तेरा नाम होगा। 
कवि: रमेश कुमार, कक्षा: 5th,
अपना घर। 


मंगलवार, 25 नवंबर 2025

कविता: "मेरे गुरु जी"

"मेरे गुरु जी"
 गुरु बस तेरा ही एक सहारा था ,
राहो का वो एक सहारा था ,
चाँदो का वो एक तारा था ,
कठिन परिस्थित्यों में भी मुस्कुराना था। 
सबके साथ रहना भी था ,
अपनी मन की बात को बताता था ,
समय बिताने के लिए मन को बहलाता था। 
कभी - कभी तो खुद से बात कर लिया करता था ,
न जाने परिंदा कैसा था वो दुखी में भी ख़ुशी नजर आती थी। 
रातो को चाँद को देखा करता था ,
सुबह सूरज की पूजा करता था ,
अपनी मन की बात को बता था ,
गजरता हुआ वह एक सहारा था। 
रहो के लिए रह था वो ,
जीवन जीने के लिए वो एक चाह था वो। 
कवि: गोपाल II, कक्षा: 6th,
अपना घर। 

 

सोमवार, 24 नवंबर 2025

कविता: "नए - नए उतरे हो अभी रहो पर"

"नए - नए उतरे हो अभी रहो पर"
 ख्यालों में खो रहे हो अभी से राहो पर,
तर्क करते हो बुजूर्गो के तजुर्बो पर ,
जिंदगी जो जी रहे हो यादो में। 
इसके किस्से रहते है उनके जज्बातो में ,
उड़ाने आओ असल जिंदगानी में। 
नादान हो तुम अभी ,
भीतर से खोखले और कमजोर हो अभी ,
खोओ नहीं किसी और की दुनिया पर ,
क्यूंकि नए नए उतरे हो रहो पर अभी। 
हाव - भाव से बहुत कुछ बदलाव दीखते है बाहर ,
इन बदलावे के लक्षण, खिखते है खतरनाक ,
ज्यादा बड़े नहीं हुए अभी। 
तर्क करो बुजूर्गो से इतने बड़े नहीं हो अभी,
अभी ठहरो जमी पर ,
क्यूंकि नए - नए उतरे हो रहो पर। 
कवि: साहिल कुमार, कक्षा: 9th,
अपन घर 

रविवार, 23 नवंबर 2025

कविता: "मेरा बचपन"

 "मेरा बचपन"
वो बचपन का क्या जवना था, 
जब कार्टून के फोटो हमारे लिया खजाना है। 
न काम की टेंसन न पढ़ाई की चिंता ,
बस मौज मस्ती में ही मन लगाना था ,
सुबह घर से बहार निकल जाना ,
और पुरे दिन न किसी का ठिकाना था। 
बस गुल्ली ठंडा खेलना और चिड़ियाँ को देखना ,
 दिन भर का यही एक ठिकाना था ,
बिन बताए घर से बहार जाना था ,
वो बचपन का भी किया जवना था। 
कभी कभी तो घर का ही ठिकाना था ,
पेट दर्द तो एक बहाना था। 
स्कुल बंक करना एक बहाना था ,
वो बचपन का भी किया जवना था ,
जब 75 % अपने जिंदगी को उड़ाना था ,
वो बचपन का क्या जवना था। 
कवि: गोविंदा कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर। 

शनिवार, 22 नवंबर 2025

कविता: "मेरे पापा"

"मेरे पापा"
सुबह से लेकर शाम तक काम है वे करते, 
मेहनत कर के खाने को एक तिनका है लाते,
उनके काम भी आसान नहीं होते,
बड़ी ही मुश्किल से रातो को चैन की नींद सो पते। 
इस ठंडी की आग में, करते है वो दिन रात काम, 
हाथो पर अभी भी है पड़े छाले, फिर भी उनके सपने है बड़े निराले। 
अपनी परिवार के लिए सब कुछ करते है,
हर त्यौहार में अपनी परिवार के ख़ुशी के लिए,
कही देर न हो जाए इसलिए समय से पहले आ जाते है, 
 खिलौने नहीं तो खाने को ही सही ले आते है। 
 उनके मेहनत से बड़े - बड़े इमारत खड़े है, 
 फिर भी वे देश के किसी कोने में लचार से पड़े है। 
उनको भी तो कुछ हक़ दो, नहीं उनके बच्चों पढ़ने दो,
उनके वो नन्हे - मुंहे बच्चे पढ़ने को बेताब है ,
उन्हे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए बस एक बास्ते से भरी किताब दो,
 आसमान ज्यादा दूर नहीं है किताबो की जरिए उन्हें उड़न भरने दो।
कही देर न हो जाए इसलिए समय से पहले आ जाते है, 
घर के किसी कोने में वे सो जाते है।  
कवि: निरु कुमार, कक्षा: 9th,
अपना घर।