बुधवार, 11 सितंबर 2024

कविता : "परिंदा "

 "परिंदा "
सोए हुए गुमसुम परिंदा ,
अब जाग जाओ तुम | 
देखो विपत्तियों का गठर लदा हुआ है ,
हर एक उम्मीदों पर | 
अब जरा एक झलक देख लो ,
अपने अंदर की आत्मा को | 
तुम्हारी हर बातो से दुःख है ,
सोए हुए गुमसुम परिंदा | 
अब जाग जाओ तुम ,
तुमने सबको देखा है | 
और देखा लोगो की कयामत  ,
अब क्या सोचते हो | 
बस एक ही बात में उलझे रहते हो ,
सोए हुए गुमसुम परिंदा | 
अब जाग जाओ तुम ,
कवि :अमित कुमार ,कक्षा :10th 
अपना घर  

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