शनिवार, 17 मार्च 2018

कविता : अपवाहें

" अपवाहें "

फैली है चरों तरफ अपवाहें,
जाएँ तो हम कहाँ जाएँ |  
मंदिर मस्जिद जैसे बटें हैं घर ,
प्यार से रहने वाले हुए बेघर | 
शांति भी चारदीवारों में छिप गई, 
पीढ़ितों की चिल्लाहट भी गूँज रही | 
उम्मीद के परिंदे भी बैठ गए ,
इस सोच में पड़े रह गए | 
वो शांति भी आएगी, 
वो खुशियाँ भी आएगी |  

नाम : प्रांजुल कुमार , कक्षा : 8th , अपनाघर


 कवि परिचय : यह हैं प्रांजुल जो की छत्तीसगढ़ के रहने वाले हैं | यह बहुत शार्प माइंड के हैं इसीलिए कोई भी चीज को जल्दी पकड़ लेते हैं | जिंदगी में एक इंजीनियर बनना चाहते हैं और उसी में फोकस कर रहे हैं | 

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