शनिवार, 4 सितंबर 2010

कविता कब चेतोगे

1 टिप्पणी:

  1. jab tak samvedna rahegi tab tak lekhni aur tulika shant nahi baith sakti.

    सुनकर सभ्यता - संस्कृति के क्रन्दन को.
    प्रकृति के करुण चित्कार - पुकार को;
    चिन्तक की लेखनी रुक कहाँ पाएगी?
    चैन छिन जाएगा, नींद उड़ जायेगी.
    छलक पड़ेंगे उदगार, गर्जन करेंगे उद्घोष -

    सुनो ! सुनो !! और सुनो !!!
    अरे ओ सभ्य मानव! प्रगतिशीलता के ध्वजवाहक;
    तू प्रगतिशीलता के नाम पर मूर्खता क्यों कर रहा?
    स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर क्यों नहीं कर रहा?
    धरती माँ की हरि चादर क्यों हटा रहा? प्यारी प्रकृति को,
    उसकी मधुमय वृत्ति को, जहरीली क्यों बना रहा?

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