बुधवार, 29 जुलाई 2009

कविता: रात का अँधेरा

रात का अँधेरा

रात का अँधेरा था,
पास के घर में उजेला था...
ऐसा लग रहा था,
जैसे कोई पढ़ रहा था...
मन में मै डर रहा था,
अपने आप से लड़ रहा था...
भूत है ये मन कह रहा था,
अँधेरा और बढ़ रहा था...
मै चद्दर ओढ़ कर सो गया,
सपनो में जाके खो गया...
सपनो में परियाँ थी,
फूलों की बगिया थी...
तभी अचानक सूरज उग आया,
चारो ओर उजाला फैलाया...
उजाले में सबने की पढ़ाई,
और मैंने ये कविता बनाई...
लेखक: ज्ञान कुमार, कक्षा ६, अपना घर


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