मंगलवार, 25 नवंबर 2025

कविता: "मेरे गुरु जी"

"मेरे गुरु जी"
 गुरु बस तेरा ही एक सहारा था ,
राहो का वो एक सहारा था ,
चाँदो का वो एक तारा था ,
कठिन परिस्थित्यों में भी मुस्कुराना था। 
सबके साथ रहना भी था ,
अपनी मन की बात को बताता था ,
समय बिताने के लिए मन को बहलाता था। 
कभी - कभी तो खुद से बात कर लिया करता था ,
न जाने परिंदा कैसा था वो दुखी में भी ख़ुशी नजर आती थी। 
रातो को चाँद को देखा करता था ,
सुबह सूरज की पूजा करता था ,
अपनी मन की बात को बता था ,
गजरता हुआ वह एक सहारा था। 
रहो के लिए रह था वो ,
जीवन जीने के लिए वो एक चाह था वो। 
कवि: गोपाल II, कक्षा: 6th,
अपना घर। 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें